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70 और 80 के दशक के फिल्मों की बात करता हूं तो मैं उसे हमेशा इमरजेंसी से दूरी पर मापता हूं। पता नहीं ऐसा क्यों है। क्या वजह है नहीं पता। ठीक ऐसे ही 90 के दशक या उसके बाद की फिल्मों को मैं अपनी पैदाइश से दूरी पर मापता हूं। वजह कभी मालूम हुई तो ज़रूर बताऊंगा। शायद खुद को इनसे जोड़ने में आसानी महसूस होती है।
तो आज मंगलवार है और हम हमेशा की तरह फिर से मेलोडी मंगलवार लेकर हाज़िर हैं। आज का किस्सा है 1976 में आई फिल्म महबूबा का। महबूबा फिल्म तब आई थी जब देश में इमरजेंसी चल रहा था। इस फिल्म को बनाया गया था गुलशन नंदा की लिखी किताब सिसकती साज़ के ऊपर। इमरजेंसी को 1 साल बीत चुके थे। जुलाई का महीना था। पर्दे पर फिल्म रिलीज़ हुई। राजेश खन्ना सुपर स्टार तो थे ही साथ में थीं फिल्म में हेमा मालिनी। फिल्म रिलीज़ हुई अच्छी चली। फिर और फिल्में आई। लोग फिल्म को भूल गए। आगे बढ़े। लेकिन फिल्म का एक गाना है, जो लोगों के दिमाग से लेकर दिल तक घर कर गया।
और ऐसा नहीं है कि ये गाना सिर्फ़ उस दौर की बड़ी हिट गीत थी। ये धीरे-धीरे एक एवरग्रीन सॉन्ग बन गया। ये बात इसलिए कह रहा हूं कि जब मैं अपने इंजीनियरिंग के दिनों में कॉलेज में था। तब वही कॉलेज हॉस्टल में रहता था। और इंजीनियरिंग कॉलेज का हॉस्टल मतलब दो चीज़ें होंगी ही होंगी। वो थी लौंडों की मोहब्बत के किस्से और दिल टूटने के बाद शराब के साथ कुछ फर्माइशी गाने। और ये गाना उन गानों की लिस्ट में होता ही होता।
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source: video grab[/caption]
आप सोचिए कि हॉस्टल के अंदर शराब ले जाने की परमीशन नहीं है। देर रात गाने-वाने नहीं बजाने हैं। और फिर लौंडों का एक ग्रुप पूरे साउंड सिस्टम और शराब के साथ उस चार मंजिली इमारत की छत पर पहुंचता। गाने बजाए जाते। दिल टूटने के किस्से सुनाए जाते। और साथ बैठे लौंडे मसान फिल्म के उस सीन की तरह जिसमें दीपक गंगा पर तैरती नाव पर बैठा होता है, दूर पुल से गुजरती रेल गाड़ी को देखर दुष्यंत कुमार की कविता पढता है। और फिर चीख-चीख कर रोता है। फिर उसके दोस्त शराब छोड़ उसे समझाने में लग जाते हैं। मिडिल क्लास वाली मोहब्बत! सब वैसा ही। और ये सब होता था बैकग्राउंड में बजते इन गानों की बदौलत।
उस माहौल को समझने के लिए पहले आपको इस गाने को सुनना पड़ेगा। फिर बताऊंगा इस गाने के पीछे का एक किस्सा, रोचक सा।
सुनिए गाना: मेरे नैना सावन भादो फिर भी मेरा मन प्यासा
https://youtu.be/3vPjMX17qC4
इससे बेहतरीन कोई गाना क्या हो सकता है। जिसे..
गाया हो: किशोर कुमार ने
लिरिक्स: स्वयं आनंद बख्शी ने
और संगीत: आर.डी.बर्मन का दिया हो
इस गाने के पीछे का छोटा सा किस्सा है। इस गाने को जब लिखा गया था और इसकी म्यूजिक पर काम चल रहा था तब इसे किशोर कुमार के लिए तैयार किया जा रहा था। और किशोर कुमार को उनके गाने और एक्टिंग के साथ-साथ एक और बात के लिए जाना जाता था। और वो था, यार! ये आदमी बहुत मुक्खड़ है। और ऐसा था भी अगर कोई प्रोड्यूसर चाहे की जबरदस्ती का काम करा लें। तो वो मुश्किल था। किशोर कुमार के साथ कम से कम। बहरहाल...
गाना तैयार हुआ। आर.डी.बर्मन साहब ने किशोर कुमार को गाने के लिए बुलाया। और इनसे कहा कि ये गाना गाना है। इसे शिवरणजनी राग में गाना है। बस इतना सुनना और किशोर कुमार का जवाब, "अरे राग की ऐसी तैसी, मैं नहीं गाऊंगा"। फिर बाद में समझ में आया कि अरे ये तो मज़ाक था।
शायद किशोर कुमार को इस बात का अंदाज़ा पहले से ही था। उन्होंने गाने को देखा। संगीत सुनी। फिर उन्होंने कहा कि मैं इसे नहीं गाऊंगा। पहले इसे लता जी से गवाओ। आखिरकार हुआ भी वही। पहले लता मंगेशकर से इस गाने का एक वर्ज़न गवाया गया। जिसको किशोर कुमार 7 दिन तक सुने। और फिर इस गाने को गाया। और सबसे कमाल बात ये हुई कि इस गाने का जो वर्ज़न लता मंगेशकर ने गया था वो इतना मशहूर नहीं हो पाया था जितना कि किशोर कुमार का गाया गाना हुआ।
लीजिए लगे हाथ लता मंगेशकर का गाया वर्ज़न भी सुन लीजिए:
https://youtu.be/0InAY07FRi4
दोनों एक से एक हैं भैया! हमारे तो बस का ही नहीं है कि दोनों को किसी पैमाने पर तौलें।
अच्छा एक और बात इस गाने को बैकग्राउंड में धीमे-धीमे प्ले करके एक बार उस कॉलेज वाले किस्से को पढ़िएगा। कसम से माहौल न बन जाए तो कहना!
आज के लिए मेलोडी मंगलवार में इतना ही। अगले मंगलवार फिर मिलेंगे किसी मस्त से किस्से और गाने के साथ। तब तक और भी किस्से-कहानियों और ख़बरों के लिए पढ़ते रहिए Firkee.in, आपका अपना!