साल 1977। सदी 20वीं। तारीख 27 मई। हिन्दुस्तान इमरजेंसी की आग से अभी बाहर निकला ही था। और अब गर्मी की दुपहरी में तपने को तैयार। इसे मरहम की जरूरत थी। और वो मरहम ले कर आए मनमोहन देसाई। फिल्म थी अमर अकबर एंथनी।
अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, ऋषि कपूर, परवीन बॉबी, नीतू सिंह, सबाना आज़मी, प्राण, जीवन, निरूपा राय, रंजीत, हेलेन सरीखे कलाकार। सब एक साथ। मनमोहन देसाई का निर्देशन। सब कुछ कमाल का। जब निरूपा राय रोतीं तो मानो ऐसा लगता देश को इमरजेंसी के बाद रोने का बहाना मिल गया हो।
मेरा अपना भी एक एक्सपीरियंस है इस फिल्म को लेकर। वो था एंथनी को लेकर। मतलब अमिताभ बच्चन। इस फिल्म को पहली बार मैंने कब देखा था मुझे याद नहीं। लेकिन जब भी देखा था ये फिल्म मुझमें अंदर तक घर कर गई थी। कई मायनों में । एक तो फिल्म का वो सीन जब मैंने देखा कि कैसे एक सुखी संपन्न परिवार पलभर में तितर-बितर हो जाता है। वो बच्चे जो कल तक अपने घर के आंगन में खेल रहे थे। वो अब सड़क पर खुले आसमान में बारिश में भीगने को मजबूर थे। जो शायद कभी जेहन से बाहर निकला नहीं। और दूसरी चीज़ थी।
इसके बाद मैंने जब भी कभी एंथनी नाम सुना। मैं अमिताभ बच्चन को छोड़ और किसी के बारे में सोच ही नहीं पाया। कोई और कभी फिट ही नहीं लगा।
188 सेंटीमीटर लंबा नौजवान। सिर पर नीली टोपी। गले में क्राइस्ट का लॉकेट। नीली गंजी और कंधे के सहारे लटकता एक कैनवस शर्ट और होठों के बीच सिगरेट टिकाया हुआ। एंथनी गोंसाल्विस। वैसे तो सारे ही कलाकार मंझे हुए। और इन सब के बाद इस फिल्म के गाने। जिनकी लिरिक्स तैयार की थी, स्वयं आनंद बख्शी ने। और संगीत दिया था, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने।