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रील लाइफ से लेकर रीयल तक विनोद खन्ना ने कई किरदार निभाए। फिल्मी और सियासी करियर के जरिए उन्होंने लोगों की वाहवाही जीती लेकिन कैंसर से जिंदगी की जंग हार गए। कहने को विनोद खन्ना दुनिया से रुख्सत हो गए, लेकिन वह अकेले नहीं, उनके साथ एक दोस्त, डाकू, संन्यासी, सांसद और एक संजीदा इंसान दुनिया से विदा हो गया। विनोद खन्ना के ये किरदार दुनिया कभी नहीं भुला पाएगी।
डाकू- विनोद खन्ना ने फिल्मों में शुरुआत खलनायक के तौर पर की। पहली फिल्म 1968 आई 'मन का मीत' थी। इस फिल्म में हीरो के किरदार में सुनील दत्त थे। वही सुनील दत्त जो डाकू के किरदार में तहलका मचाते रहे। लेकिन यह भी सच है कि सुनील दत्त के बाद किसी 'डैशिंग डाकू' ने फैंस के दिलों पर राज किया तो वह विनोद खन्ना ही थे। फिल्म मेरा गांव मेरा देश जिसने देखी है वह फिल्म के डाकू जबर सिंह को नहीं भूल सकता। फिल्म में लीड रोल में 'हीमैन' धर्मेंद्र थे। धर्मेंद्र भी अपने वक्त के हैंडसम कलाकारों में शीर्ष पर रहे, लेकिन विनोद खन्ना को भी खूबसूरत हीरो में गिना जाता था। फिल्म में अभिनय के मामले में भी विनोद खन्ना ने धर्मेंद्र से सीधी टक्कर ली। फिल्म अपने जमाने की सुपर-डुपर हिट थी।
दोस्त- फिल्म इंडस्ट्री हो या निजी जीवन वह अपने करीबियों के दोस्त बनकर रहे। एक को-इंसीडेंट ऐसा है जो बताता है कि दोस्त हो तो विनोद खन्ना जैसा। विनोद खन्ना और फिरोज खान फिल्म इंडस्ट्री के अच्छे दोस्त कहे जाते रहे। दोनों ने कई फिल्में भी साथ कीं, जिनमें शंकर शंभू (1976), कुर्बानी (1980), दयावान (1988) मुख्य रहीं। फिरोज खान के साथ विनोद खन्ना की दोस्ती देखिए कि दोनों ने दुनिया भी एक दिन ही छोड़ी। फिरोज खान ने भी 27 अप्रैल 2009 को बैंगलुरू में आखिरी सांस ली थी।
संन्यासी- 1980 में जब विनोद खन्ना ने 'द बर्निंग ट्रेन' और 'कुर्बानी' जैसी ब्लॉक बस्टर फिल्में दीं तो फैंन्स को उनसे और धमाकेदार फिल्मों की उम्मीद बंध गई। लेकिन तब तक फिल्मी चमक-दमक पर आध्यात्म का भगवा रंग हावी हो गया और विनोद खन्ना आचार्य रजनीश (ओशो) की पक्के अनुयायी बन गए। उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इसकी जानकारी दी और ओशो के साथ अमेरिका जाने की बात कही। ओशो से विनोद खन्ना का पहली मुलाकात इससे 10 साल पहले 1970 में मुंबई में हुई थी। पुणे में ओशो का आश्रम खुला तो हर शनिवार को विनोद खन्ना का वक्त वहीं गुजरने लगा था। बाद में खन्ना ने भगवा चोला धारण कर लिया। ओशो के साथ खन्ना अमेरिका गए और माली की भूमिका निभाने लगे। जानकार मानते हैं कि अगर खन्ना ने ओशो के साथ वक्त नहीं बिताया होता तो उन सात वर्षों में वह अगले अमिताभ बच्चन बन गए होते।
सांसद- आध्यात्म में गोता लगाकर खन्ना सियासत के समंदर में उतर गए, लेकिन यहां भी वह मंझे हुए खिवैया ही साबित हुए और बड़े मजे से अपनी सियासत की नाव खेते चले गए। विनोद खन्ना ने अपनी सियासी पारी 1997 में भारतीय जनता पार्टी में शामिल होकर की। वर्ष 1997 और 1999 में वह दो बार पंजाब के गुरदासपुर से भाजपा की ओर से सांसद चुने गए। 2002 में वे संस्कृति और पर्यटन के केन्द्रिय मंत्री भी रहे। 6 महीने के बाद ही उन्हें विदेश राज्य मंत्री का अहम रोल दिया गया। 2004 में वह गुरुदासपुर से उप-चुनाव जीते। 2009 में वह लोकसभा चुनाव हार गए। 2014 लोकसभा चुनाव में वह फिर से गुरुदासपुर से जीते।
कहा जाता है कि विनोद खन्ना ने समाज सेवा के लिए राजनीति में कदम रखा था। फिल्मों की वजह से वह युवाओं में लोकप्रिय रहे। यही वजह रही कि वे चार बार सांसद रहे। राजनीति के जानकर यह भी मानते हैं कि अपने जमाने की ड्रीम गर्ल रहीं अदाकार हेमा मालिनी को भी विनोद खन्ना ही राजनीति में लाए थे। हेमा मालिनी वर्तमान में मथुरा से बीजेपी सांसद हैं।
और आखिरी तस्वीर...
हाल ही में उनकी एक तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई। तस्वीर में विनोद खन्ना अपने परिवार वालों के साथ दिखाई दे रहे थे। वह बेहद कमजोर नजर आ रहे थे। मीडिया खबरों से पता चला कि उन्हें ब्लैडर का कैंसर हुआ था। उन्हें हाल ही में शरीर में पानी की कमी होने की वजह से रिलायंस फाउंडेशन के अस्पताल में भर्ती करवाया गया, जो कि गिरगांव में है। उनके बेटे और अभिनेता राहुल खन्ना ने बाद में बताया था कि उनकी हालत में सुधार है और वह जल्द ही घर लौट सकेंगे। लेकिन वह नहीं लौटे और बुधवार को अंतिम सांस लेकर दुनिया को अलविदा कह गए। उनके जाने से मायानगरी शोक की लहर में डूब गई है। फैंस और उनके चाहने वाले सोशल मीडिया पर उनको भावभीनी श्रद्धांजलि दे रहे हैं। सियासी जगत से भी उनके लिए श्रद्धासुमन अर्पित किए जा रहे हैं। हम भी उनकी ये पांच दमदार भूमिकाओं को याद कर उन्हें तहेदिल से श्रद्धांजलि देते हैं।