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ज़िम्बाब्वे के साथ हुए उस मैच की कमेन्ट्री ने देश में हाहाकार मचा दिया था

Updated Tue, 21 Jun 2016 07:40 PM IST
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Cricket World Cup 1983
Cricket World Cup 1983
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[caption id="attachment_23136" align="alignright" width="222"]author चंद्रशेखर आज़ाद[/caption] क्रिकेट की बात हो और रेडियो के ज़माने का ज़िक्र न हो। ऐसा हो ही नहीं सकता। रेडियो कमेन्ट्री का एक दौर था जब लोग बस रेडियो ले के पसर जाते थे। बाकि दुनिया का काम जाए तेल लेने। ये हिन्दुतान था। जहां लोग क्रिकेट के दीवाने थे। लोग खेत भी जाते तो रेडियो लटका कर। और काम पर भी जाते तो कान में रेडियो चिपका कर। नशा था क्रिकेट। इसी के बारे में अपना एक एक्सपीरिएंस हमें लिख भेजा है चंद्रशेखर आज़ाद ने। बहुत ही रोचक किस्सा लिखा है। अभी चल रहे ज़िम्बाबवे के सीरीज़ को भी ध्यान में रखा है। एक बार वर्ल्ड कप में ज़िम्बाब्वे ने भारतीय टीम के मात्र 17 रन पर पांच विकेट पवेलियन भेज दिए थे। 

ख़ैर अब ज्यादा बातें नहीं करूंगा। किस्सा सामने है पढ़िए। मज़ा आएगा। आपके पास भी कुछ हो ऐसा रोचक किस्सा तो हमें लिख भेजिए। एक फोटो के साथ.   shivendu.shekhar@auw.co.in पर.

  एकदम नीरस वनडे सीरिज़ के बाद पहले T-20 मैच से भी रोमांच की कोई ज्यादा उम्मीद न थी। और हो भी कैसे जब एक टीम के तीस विकेट गिरे हों तीन मैच में और दूसरी टीम के सिर्फ़ तीन। लेकिन क्रिकेट में जो थोड़ा-बहुत आकर्षण बचा हुआ है वो इसीलिए है कि पासा पलट भी जाता है कभी-कभी और हुआ भी वही। धोनी की टीम ने पहला T-20 मैच गंवा दिया दो रन से जबकि खुद बेस्ट फिनिशर क्रीज़ पर थे। लेकिन अब जान आ गई फिर से सीरिज़ में। जब तक रोमांच है तब तक क्रिकेट है। kapil bowling

ख़ैर भारत की हार से याद आ गया 1983 का वर्ल्ड कप। जिसे ऑफिशियली प्रुडेंशियल वर्ल्ड कप कहा गया था। मेजबानी कर रहे थे इंग्लैंड और वेल्स। जब भारत और जिम्बाब्वे एक ही ग्रुप में थे। और थे चैम्पियन वेस्टइंडीज़ तथा मज़बूत ऑस्ट्रेलिया की टीम। टीवी था नहीं। रेडियो का सहारा था। नहीं, शायद गलत कह रहा हूं रेडियो का तो अलग ही आनंद था। राह चलते लोगों से स्कोर पूछना। चलते-चलते रेडियो में कमेंट्री सुनकर रुक जाना एकदम आम सीन था।

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राजमिस्त्री, कार्पेन्टर, दुकानदार और यहां तक कि किसान भी बगल में रेडियो रखकर अपना काम करते देखे जाते थे। राह चलते लोग बगल में रेडियो दबाकर सुशील दोषी, मुरली मनोहर मन्जुल की हिन्दी और सुरेश सरैया, शिवाजी दास गुप्ता की इंग्लिश कमेंट्री के दीवाने थे। वर्ल्ड कप मे कमजोर आंकी जा रही इंडिया की टीम ने जब इंडीज़ जैसी टीम को शिकस्त दे दी तो एकबारगी देश मे क्रिकेट के प्रति दीवानगी हिलोरें मारने लगी। रातोंरात कपिलदेव, अमरनाथ, यशपाल शर्मा और रोजर बिन्नी हीरो बन गए। फिलिप्स कम्पनी की चांदी हो गयी। इसके फिलेटा, फिलेटिना और जवान ब्रांड्स के रेडियो की हर तरफ़ बहुतायत हो गयी। इसकी धमक का आप सिर्फ़ अंदाजा ही लगा सकते हैं क्योंकि उस वक्त गले में फिलिप्स के कमांडर ब्रांड को गले में लटका कर कमेंट्री सुनना स्टेटस सिम्बल से कम न था।

kapil dev फिर आया जिम्बाब्वे से आसान समझा जाने वाला मैच। टॉस हार कर बैटिंग करने उतरी टीम इंडिया ताश के पत्ते की तरह बिखरती नज़र आई और 5 विकेट सिर्फ़ 17 रन पर गंवा दिए। दिन के लगभग चार बज रहे होंगे। मैच डे नाईट नहीं था। टीवी भी नहीं था। मैच इंग्लैण्ड में हो रहा था सो रेडियो में सुनते आज के डे नाइट-सा महसूस होता था। अगर छत पे सो रहे हों तो आपके चारों ओर छतों पर बज रहे रेडियो की आवाज़ इतनी स्पष्ट सुनाई देती थी कि आप अपना रेडियो बंद करके भी कमेंट्री सुन सकते थे। अंदाज़ा लगा सकते हैं तो लगाईये उस ज़माने में रेडियो की चलती और क्रिकेट के प्रति दीवानगी का।

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फिर तो हाहाकार मच गया। कपिल और कीरमानी जो कि विकेटकीपर थे क्रीज़ पर। आप सोच भी नहीं सकते क्या हुआ था उस दिन। कप्तान कपिल ने 16 चौके और 6 छक्के लगाये। 175 रन पर नाबाद रहे। किरमानी ने उनका बखूबी साथ दिया। रन उन्होंने सिर्फ़ 24 ही बनाये पर वो कितने मह्त्वपूर्ण थे कि आज तक लोगों के ज़ेहन में हैं। इंडिया वो मैच 31 रन से जीत गई। और बाद में वर्ल्ड कप भी। भारत क्रिकेट का विश्वविजेता बन गया था।

kapil-devs-1983-world-cup-victory-to-be-framed-on-silver-screen-1423721758लेकिन हमारे पास दुनिया में घट रही हर घटना की सूचना पाने का एकमात्र मीडियम रेडियो था। बीबीसी लंदन का ही एक भरोसा था। किसी भी समाचार की पुष्टि के लिए लोग रेडियो खासकर बीबीसी की शरण में जाते थे। चाहें बिहार का नर संहार हो या चारा घोटाला, रेडियो ही जानकारी का एकमात्र सोर्स था। अंत में इंडिया ने वह मैच जीत लिया था और बाद में वर्ल्ड कप भी। देश में क्रिकेट और रेडियो दोनों की पॉपुलैरिटी और परवान चढ़ी। ब्लैक एंड वाइट टीवी तो उसका कुछ न बिगाड़ सकी लेकिन रंगीन टीवी, रंगीन क्रिकेट और रंगीन खबरों के नये संसार ने रेडियो की कमर तोड़ कर रख दी। आज कई सरकारों ने झुग्गियों और कमजोर वर्ग के लोगों के बीच रेडियो का मुफ्त वितरण भी किया है। फिर भी रेडियो को जीवनदान न मिल सका। अब कभी-कभी रेडियो एक दुर्लभ प्राणी की तरह किसी के गले में लटका बेसुरा बजता दिख जाता है। जैसे वह किसी दूर सफर पर निकला हो या अपनी नियति को प्राप्त हो रहा हो। इसकी दूसरी कड़ी कल पढ़िए...
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