विस्तार
संजय गांधी कांग्रेस के तेज-तर्रार नेता होने के साथ-साथ नेहरू-गांधी परिवार की विरासत के वारिस भी थे। उनके जीवन काल में पूरी-पूरी उम्मीद थी कि वो अपनी माँ, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की विरासत संभालेंगे। हालांकि उनकी अकाल मृत्यु से देश की राजनैतिक पृष्ठभूमि में कई बड़े परिवर्तन भी आए।
संजय जितने कद्दावर नेता थे, उतने ही विवादित हस्ती भी थे। 34 साल की आयु में अपनी अंतिम यात्रा पर जाने वाले संजय ने बेहद ही कम समय में काफी विवादों को आकर्षित किया। संजय ने कभी कॉलेज नहीं देखा मगर ऑटोमोबाइल इंजीनियरिगं को करियर के रूप में चुना।
तीन साल तक उन्होंने रोल्स-रॉयस के इंग्लैंड में साथ काम किया। स्पोर्ट्स कारों के शौकीन संजय ने पायलट लाइसेंस भी प्राप्त किया। संजय ने आसमान में उड़ान भरने के साथ भारतीय राजनीति में भी उड़ान भरी। इस छोटी उड़ानों में संजय खूब विवादों के बीच घिरे रहे, मगर उनकी लोकप्रियता कभी कम नहीं हुई।
निजी जीवन
संजय गांधी ने अपने से उम्र में 10 साल छोटी मॉडल मेनका आनंद के साथ विवाह किया। 1979 में दोनों का एक पुत्र हुआ- वरूण गांधी। आज के समय में माँ-बेटे, दोनो ही भाजपा के नेता और सांसद हैं।
मारुति विवाद
1971 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक ऐसी ‘गाड़ी’ के निर्माण का प्रस्ताव दिया, जिसे आम आदमी खरीद सके। जून 1971 में ‘मारूति मोटर्स लिमिटेड’ नाम से एक कंपनी बनाई गई, जिसके प्रबंधक निदेशक संजय गांधी ही थे। बिना किसा तजुर्बे, नेटवर्क और डिजाइन के ही संजय को इस परियोजना का लाइसेंस मिल गया।
हालांकि कंपनी ने कभी भी कोई गाड़ी का मॉडल पेश ही नहीं किया, किन्तु 1971 के युद्ध ने विरोध की आवाजों को दबा दिया। हालांकि संजय ने जर्मन कंपनी फोक्सवैगन से भी करार किया, मगर आपातकाल ने इस परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया। ‘जनता परिवार’ की जब सरकार बनी तो सरकारी दबावों और प्रयासों के चलते मारुति-सुजुकी ने पहली ‘जनता की गाड़ी’ मारुति-800 पेश की।
आपातकाल में रोल
1974 में विपक्ष के विरोध, प्रदर्शन और हड़ताल से पूरे देश में हड़कंप मंच गया। इससे सरकार पर काफी दबाव बन गया और सरकार ने 25 जून 1975 को देश में ‘आपातकाल’ घोषित कर दिया। जनता के मौलिक अधिकार छीन लिए गए, प्रेस को बांध दिया गया और हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया।
इस दौरान संजय को इंदिरा के प्रमुख सलाहकार के रूप में देखा जाने लगा। बगैर किसी पद के संजय प्रधानमंत्री के काफी करीब आते गए। कहा जाता है कि इमरजेंसी के दौरान, अपने सहयोगी बंसीलाल के साथ, संजय ही सरकार चला रहे थे। उनकी माँ उनके पूरे काबू में थी। पूरी सरकार प्रधानमंत्री के निवास से ही चलती थी।
सरकार और राजनीति में दखल
संजय के पास न तो कोई मंत्रालय था और न ही कोई पद, मगर संजय इस से बेपरवाह थे। उन्होंने अपने अंदाज में ही केंद्रीय मंत्रियों, बड़े सरकारी अफसरों और पुलिस अफसरों पर अपना दबाव बनाना शुरू कर दिया था। कई लोगों ने इसके विरोध में इस्तीफा भी दिया, किंतु कहा जाता है कि संजय ने खुद ही उनके उत्तराधिकारी चुने।
इसका एक उदाहरण है कि इंदर कुमार गुजराल ने सूचना-प्रसारण मंत्री रहते हुए संजय का हुक्म मानने से इंकार कर दिया। इसके एवज में गुजराल को हटा कर संजय के करीबी विद्या चरण शुक्ला को नियुक्त किया गया। इसी तरह यूथ कांग्रेस के लिए गाना गाने से मना करने पर किशोर कुमार को ऑल इंडिया रेडियो पर बैन कर दिया गया। संजय इमरजेंसी के बाद 1977 में अमेठी से चुनाव में खड़े हुए, मगर पार्टी की तरह वो भी बुरी तरह हारे। बाद में 1980 में वो अमेठी से चुनाव जीत गए।
जामा मस्जिद विवाद
संजय गांधी और डीडीए के उपाध्यक्ष जगमोहन ने पुरानी दिल्ली के तुर्कमान गेट का दौरा किया और कहा कि वो झुग्गी-झोंपड़ियों के चलते जामा मस्जिद नहीं देख पा रहे। 1976 में डीडीए ने पूरी स्थान पर बुल्डोजर चला दिया और रातोंरात 70 हजार लोग बेघर हो गए। करीब 150 लोग मारे गए।
नसबंदी प्रोग्राम
सितंबर 1976 में संजय गांधी ने नसबंदी योजना शुरू की, जिससे बढ़ती जनसंख्या को रोका जा सके। हालांकि कई लेखको, इतिहासकारो और विशेषज्ञों के अनुसार इस योजना में संजय का रोल काफी अलग-अलग रहा है। संजय ने नसबंदी को अनिवार्य कर दिया और झुग्गियां हटाने के कार्यक्रम लागू किए गए। संजय गांधी की परिवार नियोजन की मुहिम की वजह से ही सरकार नसबंदी को सख्ती से अमल में लाने के लिए मजबूर हुई।
लेकिन ये काम उन्होंने मनमर्जी और तानाशाही तरीके से किए, जिससे आम लोग नाराज हुए। एक तरह से नसबंदी कराना यूथ कांग्रेस का अभियान बन गया। संजय को खुश करने के लिए कांग्रेस की युवा इकाई के सदस्य जबरन पुलिस की सहायता से लोगों को पकड़कर नसबंदी कैंप तक पहुंचाने लगे। कहा जाता है कि उस दौरान करीब चार लाख लोगों की नसबंदी की गई।
हत्या का षड्यंत्र
मार्च 1977 में संजय अपनी हत्या के षड्यंत्र से सफलतापूर्वक बच निकले। एक अज्ञात हमलावर ने चुनाव प्रचार के दौरान, दिल्ली से कुछ दूर उन पर गोली से हमला किया, मगर संजय बच गए।
‘किस्सा कुर्सी का’ केस
अमृत नहाटा ने अपने व्यंग्य गाने ‘किस्सा कुर्सी का’ में संजय और इंदिरा दोनों को लपेटा। गाने को सेंसर बोर्ड के पास भेजा गया। बाद में सात सदस्यों की एक कमेटी ने गाने को सरकार के पास भेज दिया, जिसके बाद नहाटा को ‘कारण बताओ’ नोटिस भेजा गया।
अपने जवाब में नहाटा ने कहा कि सभी किरदार काल्पनिक है, मगर तब तक आपातकाल लागू हो चुका था। इसके बाद गाने की असली कॉपी को गुड़गांव की मारूति की फैक्ट्री में लाकर जला दिया गया। 1977 में संजय गांधी और वी.सी शुक्ला को इस मामले में दोषी पाया गया।
कानूनी केस
यह केस 11 महीनों तक चला, मगर 27 फरवरी 1979 में इस केस में फैसला सुनाया गया। संजय और शुक्ला, दोनो को ही कैद की सजा सुनाई गई, मगर बाद में फैसला बदल दिया गया।
मौत
संजय की मौत भी उनके जीवन की तरह काफी विवादित थी। 23 जून 1980 को संजय सफदरजंग एयरपोर्ट के नजदीक एक प्लेन हादसे में मारे गए। दिल्ली फ्लाइंग क्लब का नया प्लेन उड़ा रहे संजय हवाई स्टंट करते समय अपना नियंत्रण खो बैठे। उनके साथ कैप्टन सुभाष सक्सेना की भी मौत उसी हादसे में हुई। कई लोग संजय की मौत में इंदिरा का भी हाथ मानते है मगर इस बात का कोई प्रमाण नहीं है।
2010 में कांग्रेस ने अपनी रिपोर्ट में आपातकाल के लिए संजय को जिम्मेदार बताया। खैर, ये सारी बातें संजय के साथ इतिहास के पन्नों में दफ्न हो गईं, मगर संजय के खामोश देह ने अपने साथ कई राज़ का मुंह बंद कर दिया।
संजय के जन्मदिन उन्हें भावभरी श्रद्धांजली...!!