विस्तार
मेरे क्षत विक्षत शरीर को
श्रद्धांजलियां दे दी..
‘देश की बेटी’ भी बना दिया मुझको…
लेकिन मत कहो कि मर गई हूँ मै…
मरी नहीं हूं…
देश की लाखों-करोड़ो बेटियों में…
जिंदा हूं मै…
जिंदा हूं शहर की जगमगाती रोशन सड़कों पर…
सरपट दौड़ती हर उस बस में…
कि जहां आज भी वो मनचले लोग, भीड़ का बहाना कर…
जहां-तहां छूकर मुझे…
लाज से तार-तार कर देते हैं हर रोज…
हर उस टेक्सी और ऑटो में जिंदा हूं मै…
कि आज भी बैठकर जिनमें
मुझको भी पता नहीं होता…
कि कौन सी मंजिल पर पहुंचा दी जाऊंगी मै…!
मुझे एक मोमबत्ती…
या किसी के लिए सजा-ए-मौत नहीं चाहिए…
चाहिए मुझे…
मेरी मौत पर गुस्से से तमतमाई इन्ही करोड़ो आंखों में…
बस थोडा सा सम्मान…
मेरे नारीत्व के लिए…!!
16 दिसंबर 2012 जिसने देश को झकझोर कर रख दिया। ऐसा दिन जिसने देश में एक 'काला इतिहास' बना दिया। वैसे यह कहने में भी कोई हर्ज़ नहीं कि यह काला दिन, एक लड़की के जीवन में हर रोज ही रहता है। वही लड़की अगर लड़ते-लड़ते दम तोड़ दे तो एक इतिहास बन जाता है।
4 साल बीत चुके निर्भया कांड को, लेकिन यह कांड हर दिन का काम बन गया है। एक लड़की का हर एक दिन संघर्ष की तरह होता है। दामिनी जैसी न जाने कितनी लड़किया हैं जो बालात्कार की जंग से हर एक दिन ही हारती हैं।
हमारी प्रथा, हमारा सिस्टम इतनी खोखली आज भी है कि लड़कियों को बस सेक्स मैटेरियल ही समझा जाता है। यहां की मानसिकता ही इस चीज़ में सिमटी है कि लड़ाई सिर्फ़ पुरूषों से होती हैं, औरतों का तो रेप होता है" सात लड़के किसी लड़की को जकड़ कर बालात्कार कर देते हैं, लड़की का जीना दुभर हो जाता है, लड़की 'रंडी' कहलाने लगती है और इसे ही वो दरिंदे अपनी जीत का स्मारक समझ लेते हैं।
ये देश चाहे विकसित होने की जितनी भी परिभाषाएं क्यों न गढ़ ले, लेकिन बालात्कार जैसी घिनौनी हरकत चलती ही आ रही है और सदियों तक चलेगी। आखिर इन दरिंदों को समझाए कौन कि
"तुम जिसमें अपनी जीत का जश्न मनाते हो उस काम से हमारा जीवन ख़त्म हो जाता है। हम जीने की आस छोड़ शून्य में विलीन हो जाना चाहते हैं। जब भी तुम किसी देश या समाज के बारे में सबसे बुरा सोचते हो तो तुम्हारी सोच वहां की औरतों पर जाकर खत्म हो जाती है और औरतों पर सोचने के लिए तुम्हारे दिमाग में जिस्म के अतिरिक्त कुछ नहीं होता"..