रेप। सच कहें तो बार-बार ये लिख कर थका हुआ सा महसूस करता हूं। लगने लगता है कि कहीं पढ़ने वाले को ऐसा तो नहीं लगेगा कि बार-बार एक ही मुद्दे पर बात कर रहा हूं। लेकिन सच तो ये है कि ये एक मुद्दा है ही नहीं। एक ही मुद्दे के साथ चिपके हुए, उनमें धंसे हुए ना जाने कितने मुद्दे हैं। जिनके बारे में हमें पता नहीं है। हर एक नई घटना के साथ कोई नई परत खुल जाती है। हम बार-बार जलील हुआ सा महसूस करते हैं। महसूस करते हैं कि क्यों हम मर्द पैदा हुए हैं? खुद के वजूद से घिन्न होने लगती है।
जैसे, अपनी कुछ महिला मित्रों से बात करते हुए या फिर कभी किसी लड़की का कोई एक्सपीरियंस पढ़ते हुए एक नई बात समझ आई। और ये थी रेप से अलग। 'रेप का डर'। एक अजीब सी दिमागी फ़िक्र। जिसमें हर एक लड़की को सड़क चलते, आते-जाते, ऑफिस में उठते बैठते, ऑफिस से घर लौटते हुए, हर उस जगह जहां उसकी पहचान का कोई नहीं होता ये डर उनके दिमाग का एक कोना भरा रखता है। और ये हम लड़के चाह कर भी नहीं समझ सकते। कम से कम तब तक जब तक कि हम समझना चाहते ही नहीं।
आप सोचिए कि आपकी दोस्त, आपकी बहन या कोई रिश्तेदार सड़क पर अकेली जा रही हो। और उसके पीछे कुछ लड़के चले जा रहे हों। अनजान। बिना कोई प्रॉब्लम किए। लेकिन फिर भी उस लड़की के दिमाग में एक बात चल रही होती है। 'पता नहीं आगे क्या होगा!' और ये सच है। ऐसा होता है।
आप और हम ये सोच भी नहीं सकते। सोचिए कि आप सड़क पर अकेले रात में चले जा रहे हैं और अचानक आपके पीछे एक आदमी चाक़ू लिए दौड़ा आ रहा हो। तब आप क्या डर महसूस करेंगे। बिल्कुल ही असहाय? आप उस आदमी को नहीं जानते। वो आपको मारने को शायद आ भी नहीं रहा हो। वो आपके सिर को धड़ से शायद अलग नहीं करने वाला, वो शायद पागल है। वो बस यूं ही चला जा रहा है। लेकिन डर! उसका क्या करेंगे आप?
ठीक ऐसा ही डर। बस अंतर ये है कि उनके दिमाग के अंदर चल रही इन बातों को हमारे आस-पास आए दिन हो रही घटनाएं और भी मजबूती देती हैं।
अब आपका सवाल भी हो सकता है। आखिर, इसका क्या इलाज़ है? ये तो उन्हें सोचना चाहिए। जायज़ है! सवाल होना भी जायज़ है। लेकिन क्या कभी आपने ये सोचा है या किया है?
आप रात किसी अंधेरे में जा रही लड़की के ठीक पीछे आ जाएं गलती से ही सही। तो आपने अपने दोस्तों को कहा हो। कहा हो कि थोड़ा ठहर जाओ। या थोड़ा धीरे चल लो। उसके ज्यादा करीब से मत जाओ। क्या पता उस लड़की के दिमाग में हमारी वजह से कोई डर न आ जाए! नहीं! हम नहीं करते हैं। और इसमें हमारी कोई गलती नहीं।
गलती उस चीज़ की है कि हम इस बारे में बात नहीं करना चाहते हैं। हम अपने सबसे करीबी दोस्तों से भी इस डर के बारे में बात नहीं करना चाहते हैं। घर में बैठ अपनी बहनों से इस तरह की बात पूछना तो खैर दूर की बात है। हो सकता है ये पूछना शुरू-शुरू में अजीब लगे। लेकिन फिर भी ये जरूरी है।
और इसका यही एक सोल्यूशन है। अपने दोस्तों से कभी बातों ही बातों में, कभी चाय पर इस तरह की बात पूछ कर देखिए। या फिर वो कभी कोई बात कहने की कोशिश कर रही हो तो उसे पूरी तवज्जो के साथ सुनिए।
आपके ऑफिस में बैठा आपका कलिग या शायद आपका सीनियर भी हो सकता है आपसे किसी साथ काम करने वाली के बारे में कुछ अनाप-सनाप कह रहा हो। उसका जवाब दीजिए, नहीं में। उनसे मना कीजिए।
आप शायद अपनी वीकेंड पार्टी के लिए। किसी बार में बैठे हों। किसी डिस्को में गए हों। और शायद कोई लड़की वहां मजबूर महसूस कर रही हो। किसी और वजह से ही सही। जरूरत पड़े तो अपनी पार्टी को किनारे रखिए और हो सके तो उनकी मदद कीजिए। आपका कोई दोस्त या आप ही हो सकता है किसी लड़की को यूं ही देख रहे हों और वो उस लड़की को अच्छा न लग रहा हो। आप इस चौड़ में हों कि मैं तो बस यूं ही देख रहा हूं। लेकिन आपको पता भी नहीं होता है कि आप जाने या अनजाने में ही उसके दिमाग में एक डर डाल रहे होते हैं। आपकी वजह से शायद किसी का इस दुनिया को देखने का नजरिया ही बदल जा रहा हो।
इस बारे में अपने दोस्तों से भी बात कीजिए। समझाइए। क्या पता, धीरे-धीरे ही सही ये डर नाम की बीमारी खत्म हो जाए। जिससे हमारे आपके आस-पास की हर लड़की ग्रस्त है।
कभी किसी करीबी दोस्त से पूछ के देखिएगा। जब उन्हें कहीं अकेले जाना पड़ा हो। अंधेरा मिल गया हो। और पास से कुछ लड़के गुजर भर गए हों। तब उनकी धड़कनें अपने आप ही कैसे रफ्तार के आसमान पर पहुंच गई होंगी। सड़क पर गिरे एक पत्ते की कर्र की आवाज़ भी कैसे उसके पैरे कंपा दे रहे होंगे।
लड़का हो कर भी ये लिख रहा हूं क्योंकि लगता है कि शायद जीते जी कभी तो वो दिन आएगा जब हम भी गर्व से कह सकेंगे कि प्रकृति ने हमें लड़का बनाया। और लड़कियां हमारे साथ और हमारे आस-पास उतनी ही सेफ हैं, जितनी कि खुद के साथ!