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रोज़ मीलों चल कर बच्चों को पढ़ाने जाती हैं, बीच में जंगल पड़ता है, चीता भी मिल जाता है, सलाम है!

Shivendu Shekhar/firkee.in Updated Thu, 29 Sep 2016 02:43 PM IST
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विस्तार

गुरु गोविंद दोउ खड़े का को लागूं पायं बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय -कबीर

कबीर की ये पंक्तियां हम बचपन से सुनते आ रहे हैं। खूब दुहराया भी होगा। और इसे किसी धर्म या जाति विशेष के गुरु के लिए कबीर ने नहीं पढ़ा था। कबीर की पंक्तियां हमेशा जाति धर्म से ऊपर उठ कर लिखी होती थीं। और कितना सटीक भी लिखा गया है।
 
अगर एक तरफ भगवान/खुदा/अल्लाह/जीसस मिल जाएं और दूसरी तरफ हमारे गुरु खड़े हों तो किसे पहले प्रणाम करें। तो वो हमेशा गुरु ही होगा। जिसने हमें इस लायक बनाया कि आज हम उस ऊपर वाले से मिलने के काबिल हुए हैं। बहरहाल...

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टीचर्स की बात कर रहे हैं। उनके मेहनत की बात कर रहे हैं। तो ऐसी ही एक टीचर हैं सुमित्रा कोलुरु। कर्नाटक की। हुबली जिले की रहने वाली हैं। रोज लगभग 19 किलोमीटर पैदल चलती हैं। सिर्फ अपने स्कूल तक पहुंचने के लिए और बच्चों को पढ़ाने के लिए।

और इस 19 किलोमीटर में 10 किलोमीटर का घने जंगल से बीच का रास्ता भी होता है। जहां कई बार इन्हें जंगली जानवार भी मिल जाते हैं। ऐसे वैसे नहीं चीता जैसा जानवर।


सुमित्रा धोपनाहट्टी गांव के एक गवर्नमेंट हायर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ाती हैं। धोपनाहट्टी गांव हुबली जिले का एक पिछड़ा हुआ गांव है। जहां ज्यादार लोग डेली वेज लेबरर हैं। मतलब रोज लेबर का काम करके कमाने खाने वालों का गांव।


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सुमित्रा ये काम आज से नहीं पिछले 10 सालों से भी ज्यादा टाइम से करती आ रही हैं। 2005 से ही वो इस स्कूल में पढ़ा रही हैं। और जाने आने के दौरान एक बार नहीं कई बार ऐसा होता है कि उन्हें चीता मिला है। लेकिन इसके बाद भी वो आज तक स्कूल जा ही रही हैं। और बच्चों को पढ़ा रही हैं।
 

जाने आने का हिसाब ऐसा है कि पास के एक गांव तक जहां तक सड़क बनी हुई है। वो बस से जाती हैं। इसके बाद सड़क नहीं बने होने के कारण जाने आने का कोई साधन नहीं है। तो उन्हें वहां से पैदल ही जाना होता है।

वो बताती हैं कि बारिश के समय तो यहां और भी बुरा हाल हो जाता है। सड़क कच्ची है, कच्ची क्या बनी ही नहीं है कुछ। बस चल-चल कर जो एक पगडंडी सी बन जाती है। वो बस वैसा ही है। जहां बारिश के समय और भी बुरा हाल हो जाता है।

 

जब इनके पति फुर्सत में होते हैं तब वो इन्हें स्कूल तक छोड़ देते हैं। लेकिन ज्यादातर इन्हें खुद से ही जाना होता है।


कहती हैं, " इस गांव के ज्यादातर लोग डेली वेज लेबरर हैं। गरीब हैं। मैं उनके बच्चों को अच्छे से पढ़ाना चाहती हूं। उनके अच्छे से तैयार करना चाहती हूं।"


अच्छा जब कभी कोई जंगली जानवर मिल जाता है तब क्या करती हैं? अभी कुछ दिन पहले ही उन्हें जंगल में चीता मिला था। तब क्या करती हैं?


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इस पर सुमित्रा कहती हैं, " हां, डर तो लगता ही है। कहीं कोई जानवर हमला ना कर दे। लेकिन अगर ऐसा कुछ होता है तो मैं कहीं छुप जाती हूं। जब तक वो जानवर कहीं चला ना जाए। या वहां से दूर ना हो जाए।"


सच में कितनी मुश्किल से सुमित्रा स्कूल पहुंचती हैं। काश! कर्नाटक सरकार, भारत सरकार कोई भी उस गांव तक जाने के लिए सड़क बना देता।

हां, ये बात तब भी कह रहा हूं। अगर सिर्फ और सिर्फ सुमित्रा के लिए ही उस सड़क की जरूरत हो। और क्या दिक्कत है अगर सुमित्रा के नाम पर ही उस गांव के लोगों को भी सड़क मिल जाए।


सुमित्रा के इस जज्बे को Firkee सलाम करता है। और हम चाहेंगे ये खबर कर्नाटक सरकार क्या केंद्र सरकार तक पहुंचे। शायद सुमित्रा की प्रॉब्लम का कोई सॉल्यूशन हो जाए।


इस खबर के लिए विशेष गुजारिश है इसे लोगों तक भी पहुंचाएं। क्या पता किसी काम के आदमी तक खबर पहुंच जाए। और पढ़ते रहें Firkee.in

 

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