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लखनऊ डायरी: गच्चा खा गए बाबूजी!

Shivendu Shekhar/firkee.in Updated Tue, 24 Jan 2017 03:55 PM IST
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लखनऊ डायरी
लखनऊ डायरी - फोटो : source
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विस्तार

उत्तर प्रदेश, सिर्फ एक राज्य नहीं है ये। चुनावी इतिहास लिखता है। अब वो चाहे लोकसभा के चुनाव हो चाहे विधान सभा के लिए। ये नेताओं की तकदीर लिख देता है। कुछ के मिट भी जाते हैं। इस बार फिर से विधान सभा चुनाव होना है। वेलेनटाइन के महीने में शुरू होने वाला है।

इसके पहले दिसंबर के महीने में मोहब्बत की नौटंकी आपने देख ही ली होगी। पप्पा से लेकर चच्चा तक सब खिसियाये हुए थे। लेकिन कमीशन को इससे क्या लेना देना! कमीशन से मतलब 'इलेक्शन कमीशन'। साईकिल टायर और सीट सहित बेटे अखिलेश के हाथ में हैंडल पकड़ा दिया गया। अब भैया एकदम नए अवतार में उतरे हुए हैं। अब जो हो रहा है वो भी आप देख ही रहे हैं। 

इन सब नौटंकियों के बीच हम आपको पढ़ाया करेंगे। लखनऊ डायरी। ये डायरी मजे लेती है। किसकी? उनकी जो जनता के मजे लेते हैं। डायरी लखनऊ से सीधे पार्सल हो रही है! 

 
लखनऊ डायरी


आज पढ़िए लखनऊ डायरी की दो क़िस्त। 
 

पहली क़िस्त: गच्चा खा गए ‘बाबूजी’ 



बाराबंकी वाले ‘बाबूजी’ को उम्मीद भी नहीं होगी कि इतनी जल्दी सब कुछ उलट-पुलट हो जाएगा। समाजवादी पार्टी और बाप-बेटे की लड़ाई में यह सोचकर ‘नेताजी’ के पाले में जा खड़े हुऐे कि बेटे का टिकट पक्का हो जाए। ऐसी सीट से बेटे को उम्मीदवार घोषित भी करा दिया जहां से ‘सरकार’ के करीबी मंत्री का दावा था। मंत्री को निपटाने और बेटे की जीत का रास्ता साफ करने के लिए वह गोटें ही बिछाते रह गए लेकिन एक ही झटके में सारे समीकरण गड़बड़ा गए। पार्टी में निजाम बदला तो उम्मीदवारों की नई सूची जारी हुई।

‘बाबूजी’ के साहबजादे का उस सीट से पत्ता साफ हो गया, जहां से पहले मिला था। ‘सरकार’ के  करीबी मंत्री को फिर वही सीट मिल गई। बेचारे ‘बाबूजी’ कसमसाकर रह गए। पार्टी के लोग चुटकी लेे रहे हैं कि सयानापन दिखाने के चक्कर में गच्चा खा गए। न फटे में टांग अड़ाते, न ये दिन देखने पड़ते।


दूसरी क़िस्त: ‘स्वामीजी’ के मंसूबों पर तुषारापात


आम तौर पर ऐंठ में ही रहने वाले ‘स्वामीजी’ की हालत ऐसी हो गई है कि न दर्द कहते बन रहा है और न सहते। हाथी से उतरकर भगवा चोला धारण किया था, लेकिन जब टिकट बांटने की कवायद शुरू हुई तो ‘स्वामीजी’ के पांव तले जमीन ही खिसक गई। बड़ी ठसक के साथ लंबी-चौड़ी लिस्ट बनाकर रखी थी, लेकिन उनकी सूची जेब में ही पड़ी रह गई।

कमल थामकर खुद के साथ बेटे और बेटी का सियासी भविष्य भी संवारने का मंसूबा पाले बैठे थे, पर अब तो अपने ही टिकट के लाले पड़ते दिखाई दे रहे हैं। भगवा दल छोड़ने की चर्चा भी होने लगी लेकिन सफाई दे रहे हैं कि कहीं नहीं जा रहे हैं। सच तो यह है कि कोई उन्हें भाव ही नहीं दे रहा। उनकी हालत देखकर लोग यह कहने से नहीं चूक रहे हैं कि दांव देने वाले को दांव खाना भी पड़ता है। 
 

आते रहिए! मिलता रहेगा। चौंचक मज़ा! डायरी भी यहीं होगी और हम भी! जय हो!


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