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अलोक, आई.आई.टी, दिल्ली का प्रोफेसर, 'रघुराम राजन' को पढ़ाया अब आदिवासियों की सेवा में लगे हैं

Shivendu Shekhar/firkee.in Updated Tue, 13 Sep 2016 04:24 PM IST
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विस्तार

'ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया, ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया, ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है'                                                                              
  -साहिर लुधियानवी


1957 में एक फिल्म आई थी। नाम था प्यासा। गुरु दत्त हीरो थे। बनाया भी उन्होंने ही था। इसी फिल्म के लिए साहिर लुधियानवी ने एक गाना लिखा था। उसी गाने की ये शुरूआती लाइनें हैं। बाद में अनुराग कश्यप की फिल्म 'गुलाल' में इस गाने को थोड़ा मोडिफाई करके इस्तेमाल किया गया था। पियूष मिश्रा ने गीत लिखा था। ख़ैर... 
 

ये लाइनें उस आदमी के लिए मुझे सबसे फिट लगीं जो कि आई.आई.टी., दिल्ली में प्रोफेसर हुआ करता था। उसने इस देश के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन को भी पढ़ाया।

नाम है आलोक सागर। खुद आई.आई.टी, दिल्ली से इंजीनियरिंग की डीग्री ली। फिर अमेरिका के ह्यूस्टन यूनिवर्सिटी से मास्टर्स किया, पीएच.डी कम्पलीट किया। फिर आई.आई.टी, दिल्ली में प्रोफेसर हो गए।

 
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मन उब गया। समझ में आ गया। ये सब मोह माया है, दिखावा है। एक दिन सब कुछ छोड़ कर चल दिए। मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाकों में रहने के लिए। और आज तक उनकी सेवा कर रहे हैं। इस्तीफ़ा देने के बाद आलोक मध्य प्रदेश के होशंगाबाद और बेतुल ज़िलों के आदिवासियों के लिए काम करने लगे। अभी पिछले 26 साल के कोचामु गांव में रहते हैं।

इस गांव में तकरीबन 750 आदिवासी रहते हैं। गांव में न तो अच्छी सड़क है और न ही बिजली। बच्चों की पढ़ाई के लिए ले दे कर एक प्राइमरी स्कूल है बस।

पिछले 26 सालों में आप पूछेंगे, आलोक ने क्या किया है। तो जवाब मिलेगा। उन्होंने तब से आज तक 50,000 से ज्यादा पेड़ लगाए हैं। दिन भर यही सब करते रहते हैं। बीज जमा करते हैं। फिर उसे लोगों में भी बांटते हैं।
 

हिन्दुस्तान टाइम्स से बात करते हुए कहते हैं, "इंडिया में लोग बहुत तरह की प्रॉब्लम्स फेस करते हैं। लेकिन हर कोई अपनी डिग्री और अपना ज्ञान दिखाने के लिए परेशान है। कोई ग्राउंड लेवल पर काम नहीं करना चाहता है।"



अलोक इतने लो प्रोफाइल रहते हैं कि उनके पुराने दोस्त-यार भी अगर उनको मिल जाएं तो चौंक जाएं। क्या  है उनके पास! एक साइकिल। जिसको ले कर वो घूमते रहते हैं। दो-चार कुर्ता है उनके पास अपना। जिसको पहनते हैं। और दिन भर अपने काम में लगे रहते हैं।
 

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एक मज़ेदार किस्सा भी है। बेतुल में कुछ दिन पहले ज़िला में कोई चुनाव था। जो लोकल अथॉरिटी थी, उनको कुछ शक हुआ। अब आदमी है गरीब-सा दिखता है, दुनियादारी से ज्यादा मतलब नहीं रखता। थोड़ी दाढ़ी बढ़ गई है। उसे हमारे यहां लोग या तो पागल मान लेते हैं। या कोई क्रिमिनल होगा।

यही इनके साथ भी हुआ। इनको चुनाव तक के लिए बाहर जाने को कह दिया गया। इसके बाद आलोक ने जब उन अफसरों को अपनी डिग्री की लम्बी लिस्ट और सब कुछ बताया तो सब के कान खड़े हो गए। जांच की गई तो वो सारी बातें सच निकलीं।


आलोक बस दिन भर इसी काम में लगे रहते हैं कि किसी तरह से इन आदिवासी लोगों की ज़िंदगी में कुछ सुधार कर लिया जाए।

 

अफ़सोस की आज हमारे पास ऐसा एक ही आलोक है। क्या पता 100 होते तो हिंदुस्तान में आज 100 गांव सुधर गए होते। कहना आसान है। करने वाले यहां बैठ कर मेरी तरह ज्ञान नहीं पेल रहे होते। अब तक कुछ कर चुका होता।

चलो मान लिया मैं डरपोक हूं। भविष्य को लेकर बेहद ही इनसेक्योर। कहानी इसीलिए बताई कि क्या पता आप में से कोई हो जो ऐसा कुछ करना चाहता हो। और मुझ-सा बुझदिल भी न हो।

 

पढ़ते रहिये Firkee.in आपकी सेवा में।


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