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वैसे तो दुनिया में तरह-तरह के लोग रहते हैं और उनके व्यंजन अलग-अलग तरह के ही होते हैं। और भारत तो है ही विविधताओं का देश, यहां जितने प्रकार के लोग उतने ही प्रकार के उनके भोजन। दरअसल हर जगह के अपने खान-पान की कुछ विशेषता होती है। ऐसी ही एक चीज़ है ‘चापड़ा’ यानी कि लाल चींटी की चटनी जो ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड राज्यों के घने जंगलों वाले आदिवासी इलाकों में खाई जाती है।
चींटियों को इकठ्ठा करके चटनी बनाते हैं
आपको बता दें इन इलाकों में रहने वाले लोग पेड़ों पर रहने वाली लाल रंग की चींटियों को इकठ्ठा करके चटनी बनाते हैं जिसे स्थानीय भाषा में ‘चापड़ा’ कहते हैं। स्थानीय आदिवासी इसे स्वयं तो खाते ही हैं साथ ही बाज़ार में बेचकर अच्छी कमाई भी करते हैं और ये वहां के लोगों में खासी पसंद की जाती है ।
आइए बताते हैं कैसे बनाते हैं चापड़ा
वैसे तो ये साधारण चटनी जैसे ही बनाई जाती है, लेकिन इसमें जंगलों में साल के पेड़ों से चींटियों को जमा कर उसे पीसा जाता है और स्वादानुसार मिर्च और नमक मिलाया जाता है, जिससे इसका स्वाद चटपटा हो जाता है। इसे आदिवासी बड़े चाव से खाते हैं। चींटी में फॉर्मिक एसिड होने के कारण इससे बनी चटनी चटपटी होती है। साथ ही आदिवासियों के लिए यह प्रोटीन का सस्ता स्रोत भी है।
बीमारियों से बचाती है चापड़ा चटनी
इन आदिवासियों का मानना है कि इससे कई बीमारियों में आराम मिलता है और प्रतिरक्षा (इम्युन सिस्टम) प्रणाली मजबूत होती है, जो बीमारियों से रक्षा करती है। ग्रामीणों की मानें तो चटनी के सेवन से मलेरिया तथा डेंगू जैसी बीमारियां भी ठीक हो जाती है।
आमतौर पर ऐसी मान्यता है कि साधारण बुखार होने पर ग्रामीण पेड़ के नीचे बैठकर चापड़ा लाल चीटों से स्वयं को कटवाते हैं, इससे ज्वर उतर जाता है।
चापड़ा की चटनी आदिवासियों के भोजन में अनिवार्य रूप से शामिल होती है। छोटी व बड़ी लाल चींटी ‘ओइकोफिला स्मार्गडीना’ ज्यादातर ऐसे पेड़ों में पाई जाती हैं जिससे निकलने वाला रस मीठा हो।
प्राकृतिक जैविक कीटनाशक के तौर पर इस्तेमाल
ब्राजील, आस्ट्रेलिया व चीन जैसे देशों में शोध के बाद यह पाया गया कि इन चींटियों को प्राकृतिक जैविक कीटनाशक (बायोपेस्टिसाइड) के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। फलों के बगीचों में इन चींटियों को छोड़ा जाता है। इनके डर से फलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट दूर रहते हैं।
https://youtu.be/QSyXiH1koTo