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जेल शब्द सुनते ही जेहन में खौफनाक चेहरे उभरना लाजमी है। लेकिन हकीकत से परे जेल वो चारदीवारी है जहां लोहा पिघलता है, सख्त जुबां करती है शायरी और कत्ल करने वाले हाथ भरते है उम्मीदों के नए रंग। आरोपी और दोषी के बीच की खाई में सिसकती मजबूरी है। ममता के साथ पिस रहा मासूम बचपन और अंतस की अनसुनी कहानी कहने को बेताब मुलाकातों वाला कमरा।
जेल के अंदर के इसी सच को डॉ वर्तिका नंदा अपनी किताब 'तिनका तिनका डासना' में उजागर कर रही हैं। इससे पहले वह भारत की सबसे बड़ी जेल तिहाड़ पर भी किताब लिख चुकी हैं और ये किताब उसी की दूसरी कड़ी है।
जो व्यक्ति कभी जेल नहीं गया उसके दिमाग में जेल के अंदर के वातावरण को लेकर बहुत सी बातें उभरती हैं। ये वो छवियां होती हैं जो कुछ तो टीवी सिनेमा से होकर हम तक पहुंचती हैं तो कुछ समाचारों द्वारा, लेकिन ये तीनों ही माध्यम जेल के अंदर की असली तस्वीर पेश करने में पूरी तरह सफल नहीं होते हैं। ऐसे में इस किताब को पढ़ने पर ऐसा लगता है जैसे आप जेल के अंदर की ज़िन्दगी को खुद देख पा रहे हैं। इस किताब में जेल के गेट से लेकर बैरक तक का एकदम सटीक वर्णन किया गया है जो कि मानवीय संवेदनाओं से भरा हुआ है। जेल के मुख्यद्वार पर बड़े-बड़े अक्षरों में सुस्वागतम और अभिनंदन शब्द जैसे अंदर आने वाले से मज़ाक करते दिखाई पड़ते हैं। साथ ही यहां लगी लोहे की जाली जो कैदियों को मिलने आने वालों से अलग करती है वह भावों के सागर को महसूस करते हुए भी पिघलती नहीं है बस वहीँ बनी रहती है।
जेल का नाम सुनते ही मन में अपराधियों की छवि उभरती है। लेकिन क्या आपने कभी उन बच्चों के बारे में सोचा है जो जेल में ही पैदा होते हैं और बाहर की दुनिया से लगभग कटे ही रहते हैं। हम में से बहुत से लोगों को तो पता भी नहीं होगा कि जेलों में कुछ मासूम बच्चे भी रहते हैं। इनकी ज़िंदगी पर भी इस किताब में विस्तार से बात की गई है। साथ ही ये बच्चे केवल 6 साल तक ही अपनी मां के साथ रह सकते हैं उसके बाद इन्हें किसी सामाजिक संस्था के पास भेज दिया जाता है जो इनका पालन-पोषण करती है। इसके बाद ये अपनी मां से मिल भी पाते हैं या नहीं इसका पता सिर्फ़ इनकी किस्मत को होता है।
जेलों के सभी कैदी अपराधी नहीं होते। कुछ पर फैसला आना बाकी होता है। वे लोग भी इस देश की लचर न्याय व्यवस्था के कारण किसी दूसरे के हिस्से की सज़ा भोगने को मजबूर हैं। यह किताब इस मुद्दे को भी काफ़ी मज़बूती से उठाती है। इस जेल में क्षमता से अधिक कैदी रखे जाते हैं जो कि एक बहुत बड़ी समस्या है।
इसके अगले हिस्से में लेखिका ने 5 बंदियों को चुना है जिन्होंने जेल में रहते हुए अपनी ज़िंदगी को पूरी तरह से बदल लिया है। इन बंदियों में मशहूर तलवार दंपति भी हैं जिनके साथ मीडिया ने एक अच्छा ख़ासा टीआरपी का खेल खेला था। इनमें वह सुरेंद्र कोली भी है जो एक समय पर निरक्षर था लेकिन आज अपने केस से जुड़ी हर छोटी बात जानता है और कानून के मसले पर अच्छे-अच्छों को मात दे सकता है।
इस किताब का एक बड़ा हिस्सा कविताओं से भरा हुआ है और इसकी ख़ास बात ये है कि ये कविताएं सिर्फ़ लेखिका ने ही नहीं बल्कि जेल के कैदियों द्वारा लिखी गई हैं। इस जेल का एक बंदी पेंटिंग करने में माहिर था। उसने डासना की एक दीवार को अपनी आशा के रंगों से रंग दिया और इस किताब के आते-आते उसकी बेल भी हो गई।
इस पुस्तक की भाषा की बात करें तो ये बेहद सरल है। लेखिका ने भूमिका में ही ये साफ़ कर दिया है कि उन्होंने लिखते समय साहित्य के मापदंडों को ध्यान में नहीं रखा है बल्कि उन्होंने वह सब कुछ वैसा का वैसा यहां लिख दिया है जैसा उन्हें दिखा है। इसीलिए इसे पढ़ते हुए आप पाएंगे जैसे आप कोई न्यूज़ रिपोर्ट देख रहे हों।
लेकिन पुस्तक में महज़ समाचार या जानकारी नहीं है, ये आपके अंदर भावों का एक समंदर पैदा करती है। इसकी कविताएं आपको इसके कथ्य से और अधिक जोड़ देती हैं। इस पुस्तक के माध्यम से लेखिका ने इन बंदियों के दिल की बातें हम सब तक पहुंचाने का प्रयास किया है जिसमें वह पूरी तरह से सफल हुई हैं। लेखिका उन लोगों तक भी एक संदेश पहुंचाना चाहती हैं जो इस देश का कानून बनाते हैं और जिन्होंने इन बंदियों को एक तिनका मानने से भी इनकार कर दिया है।
यहां जेल के अधिकारियों के बारे में भी बात की गई है कि कैसे ये अधिकारी इन बंदियों के परिवारवाले बन जाते हैं। इन अधिकारियों की जो छवि आम जनता के सामने बनी हुई है ये उससे काफ़ी अलग होते हैं। ये इन बंदियों की ज़िन्दगी को बनाए रखने की भरसक कोशिश करते हैं। ये इन बंदियों के हीरो हैं। इन अधिकारियों को वे काम भी करने पड़ते हैं जो इनकी ड्यूटी का हिस्सा नहीं हैं लेकिन इनकी नैतिक ज़िम्मेदारी हैं। इसके साथ ही जिन बंदियों को आजीवन कारावास मिला है उन्होंने अपनी नियति को मानते हुए किस तरह से अपना जीवन बदला है उसकी एक झलक भी इस पुस्तक में दी गई है। इसमें एक गीत भी है जिसे लेखिका ने स्वयं लिखा है लेकिन उसे गाया इन कैदियों ने है।
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद शायद आप जेल के अंदर के जीवन से खुद को जोड़ पाएंगे। इसे जेल में डाल दो, इसे फांसी पर चढ़ा दो - जैसी बातें करना बहुत आसान होता है लेकिन इस पुस्तक को पढ़ने के बाद शायद आप अपने भीतर छिपे एक जज को निकाल फेकेंगे। ये बंदी इंसान ही हैं, बिल्कुल आम हम सब की तरह ही इस बात का एहसास हमें इस पुस्तक को पढ़ने के बाद होता है। तिनका तिनका डासना अपने उद्देश्य की पूर्ति करती है और पाठकों को एक नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर देती है। ये जेल और उसके बंदियों के प्रति स्थापित घृणा के पहाड़ को काट उसके बीच में से एक रास्ता बनाने का काम बखूबी करती है।
लेखिका परिचय
डॉ वर्तिका नंदा एक मीडियाकर्मी, लेखिका और शिक्षक हैं। उन्होंने विभिन्न विषयों पर कई किताबें लिखी हैं और साथ ही उन्हें राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से 2014 में 'स्त्री शक्ति सम्मान' भी मिल चुका है। इसके अलावा इन्होंने मीडिया और अपराध पर बहुत विस्तार से काम किया है। इनकी पहली किताब'तिनका तिनका तिहाड़' को 2015 में लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में भी शामिल किया गया है। अपनी इस दूसरी किताब में वर्तिका जी ने डासना जेल से एक जीवंत रिपोर्टिंग की है