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तुम आधी आबादी हो, तुम्हें भी चाहिए समानता का अधिकार। बराबर पढ़ने का, नौकरी करने का, बराबर वेतन पाने का, दिन में बराबर 24 घंटे जीने का। तुम नहीं चाहती कि सिर्फ़ भैया की रोटियों में घी लगाई जाए। तुम नहीं चाहती कि सिर्फ़ तुम्हारा पति ही काम करे। तुम नहीं चाहती कि तुम्हारी ज़िंदगी के सारे निर्णय ये पुरुष लें। तुम चाहती हो अपनी राह चुनना और अस राह पर रास्ता बनाना। पर फिर तुम कहीं कमज़ोर भी बन जाती हो। कमज़ोर इसलिए क्योंकि युगों से शांत पड़ी थी तुम, अब उठना शुरू किया है। तो तुम्हें मदद भी चाहिए।
मिल तो रही है मदद। आरक्षण भी मिल ही रहा है। अब उसका किस हद तक सही इस्तेमाल कर पाती हो ये तो तुम्हें ही तय करना है न। गांव के सरपंच के चुनाव में भी कई बार तुम्हारे लिए सीट आरक्षित होती है। महिला प्रधान ही चाहिए। फिर क्या? महिलाओं में चुनाव होता है, तुम जीत जाती हो और गांव भर के लोग आकर तुम्हारे पति को बधाई देने लगते हैं क्योंकि सभी को पता है कि नाम तुम्हारा है पर काम तो उन्हें ही करना है न! अब बताओ, क्या फायदा हुआ ऐसी मदद का! बसों से लेकर मेट्रो ट्रेनों तक में तुम्हारे लिए अलग से सीटें आरक्षित हैं जिनपर अगर कोई पुरुष बैठा हो तो वह उठ जाता है। और रिज़र्व्ड सीट्स की बात छोड़ो, अगर तुम किसी बस में या मेट्रो के सामान्य कोच में खड़ी रहती हो तो कई बार कोई लड़का या आदमी उठकर तुम्हें अपनी सीट नहीं देता क्या? ये तुम्हारे प्रति उनका सम्मान ही तो है। वो भी चाहते हैं कि तुम आगे बढ़ो और इस राह में कम से कम मुश्किलें आएं।
पर कई बार तुम्हें मदद की ज़रूरत नहीं होती। ठीक वैसे ही जैसे हर अनुसूचित जाति और जनजाति की श्रेणी में आने वाले इंसान को मुफ्त शिक्षा और नौकरी की ज़रूरत नहीं होती। वो सम्मान के साथ उसे पाना चाहता है। जब तुम बराबरी का झंडा उठाए चलती हो तो कई बार तुम्हें भी तो ये लगता है कि जहां मदद की ज़रूरत नहीं, वहां क्यों लें? तो जब तुम इतनी बोल्ड हो, अपनी आवाज़ उठा सकती हो, बराबरी की बात करती हो फिर ऐसी उम्मीद क्यों पालती हो कि तुम्हें सभी ज़रूरतमंद समझें?
कई बार बसों और ट्रेनों में लड़कियों को बहस करते देखा है। बेमतलब की बहस। हां, मैं एक लड़की हूं, फेमिनिस्ट हूं और ऐसा कह रही हूं। फेमिनिस्ट होने का मतलब ये नहीं कि महिलाओं की हर सही-गलत बात का समर्थन किया जाए और फेमिनिस्ट का मतलब पुरुष विरोधी होना भी नहीं होता। कई बार महिलाएं ही महिलाओं का भला नहीं चाहतीं और पुरुष चाहते हैं। तो फेमिनिज़्म मतलब नारीवाद का पुरुष और स्त्री से कोई लेना-देना नहीं है। नारीवाद कोई भी हो सकता है। एक बार मैं दिल्ली में ही कहीं जा रही थी, बस से। बस से बहुत कम सफर किया है मैंने। उस दिन एक लड़की भी थी उसी बस में जिसने टिकट नहीं ली थी। अगले स्टॉप पर टिकट चेक करने वाले खड़े थे, जब उसने देखा तो टिकट लेने चली गई। कंडक्टर ने पूछा कि अबतक क्यों नहीं ली थी तो अपनी बात का वज़न बढ़ाने के लिए बहस करने लगी और अपशब्द पर आ गई। फिर आखिरी बात वही कि आपलोग महिलाओं को आगे बढ़ने देना नहीं चाहते। आपलोग बद्तमीज़ी करते हैं, आपको फांसी हो जानी चाहिए।
मैंने उठकर पूछा कि कौन आपको टिकट लेने से रोक रहा था? कौन नहीं बढ़ने दे रहा था? वो चुप हो गई फिर अगले ही मिनट में कंडक्टर से बहस करने लगी। ऐसी लड़कियां और महिलाएं स्त्रीत्व को ज़रूरतमंदी से इस कदर जोड़ती हैं जिससे ये साबित हो जाए कि महिलाएं होती ही ज़रूरतमंद हैं। इन्हें ज़रूरतमंद बनने की आवश्यकता नहीं होती, पर फिर भी विक्टिम कार्ड खेलने की आदत होती है।
पुणे के कनिष्क सिंहा दिल्ली आ रहे थे। उन्हें ट्रेन में लोअर बर्थ मिली थी। उन्हीं की सीट की तरफ एक 23 वर्षीय लड़की को अपर बर्थ मिली थी। देखिए, बर्थ बदलना बहुत ही सामान्य बात है। अमूमन लोग बदलते रहते हैं पर बात करने का और अपनी बात रखने का एक तरीका होता है, जो काम बना सकता है और बिगाड़ भी सकता है। जैसे ही टीटीई आया, वो लड़की उसे खूब कंविंस करने लगी (लोअर बर्थ के लिए)। कायदे से वो बर्थ बदलने के लिए कनिष्क से भी कह सकती थी। ख़ैर, टीटीई से कहना भी गलत नहीं था। तो टीटीई साहब कनिष्क की सीट पर आए और प्यार से कहा कि ऊपर वाले बर्थ पर चले जाओ, मैडम को लोअर बर्थ दे दो। कनिष्क ने कहा कि वो अपनी बर्थ नहीं देना चाहता है, उसे लोअर बर्थ ही चाहिए। वो कहीं और देख लें। इसपर बात बढ़ती चली गई और लड़की ने कहा - तुम्हें एक बार में समझ नहीं आता? बहरे हो?
आपको भी पता होगा कि आप सीट बदलने के लिए किसी पर दबाव नहीं बना सकते। पर महिला सशक्तिकरण की आड़ में वो भी हुआ। दूसरे लोगों ने भी कहा कि लड़की है यार! फिर कहा कि RPF को बुलाओ ठीक हो जाएगा। बाद में मैडम ने कहा कि मैं अभी वुमन हेल्पलाइन में कॉल करती हूं। अब देखिए, सहायता का कितना दुरुपयोग हो रहा है! वो लड़ा आज जेल में होता या उसे ट्रेन से बाहर निकाल दिया जाता अगर उसने ये नहीं बताया होता कि वो रेलवे के सीनियर ऑडिट ऑफिसर का बेटा है।
उसके पिता की पोस्ट ने उसे बचा लिया। आम लड़का होता तो महिला कानून की बलि चढ़ गया होता।
तो कबतक आपको ज़रूरतमंद बनी रहना है? कब तक आप कहलाना चाहती हैं दया का पात्र? क्या आपको नहीं लगता कि ये विक्टिम कार्ड खेलना बंद होना चाहिए? अगर आपको ज़रूरत नहीं है तो महज़ आराम के लिए क्यों सभी महिलाओं की अस्मिता खराब कर रही हैं? आप अपने हिस्से की ज़िंदगी में कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं, पर जब आप उसे महिला या और किसी ऐसे सामाजिक विषय-वस्तु से जोड़ देती हैं तो उसका असर भी सभी पर पड़ता है। आप अपने हिस्से का आक्रोश अपने बहाने निकालिए, महिलापन को घसीटकर सभी महिलाओं के लिए मुश्किलें न खड़ी कीजिए।
बात बुरी लगी होगी, पर यही है नारीवाद। आपकी हर बात सही नहीं है और उनकी हर बात गलत नहीं है। आपको पूरा समर्थन है पर आपकी गलतियों को नहीं।