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जब धर्म बनाम विज्ञान की चर्चा शुरू होती है तो वह एक अंतहीन निष्कर्ष की तरफ बढ़ जाती है। ऐसे में व्यंग्य सम्राट कहे जाने वाले हरिशंकर परसाई ने धर्म और विज्ञान को लेकर एक संतुलित लेख लिखा। ‘धर्म और विज्ञान’ शीर्षक का यह लेख 1985 में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित उनकी किताब ‘ऐसा भी सोचा जाता है’ में छापा गया था।
अपनी दुनिया और संपूर्ण सृष्टि की व्याख्या और समझ सबसे पहले धर्म ने दी, विज्ञान ने नहीं। या यूं कहें कि धर्म पहला विज्ञान है, बाद में वैज्ञानिकों ने दूसरी व्याख्याएं कीं, दूसरे कार्य-कारण बताएं, दूसरे अर्थ समझाए, तब धर्म ने इन सबको नमंजूर कर दिया। इस तरह धर्म ने विज्ञान को नकारा ही नहीं, वैज्ञानिकों को ज्ञान देने के लिए सजा भी दी। ब्रूनी और गैलिलियो इसके उदाहरण हैं। इससे भी पहले धर्म की आदिम अतार्किक धारणाओं को जब सुक्रात ने तर्कों से गलत सिद्ध किया, तब उन्हें जहर का प्याला पीना पड़ा। धर्म और विज्ञान की पटरी कभी नहीं बैठती। कुछ साल पहले जब ‘अमेरिकी स्काइलैब’ गिरने की सूचना दी गई, तो हमारे देश में उससे बचने के लिए भजन-कीर्तन रात भर होते रहे।
उनका मानना है कि धर्म और विज्ञान में वैसा संघर्ष नहीं है जैसा लोग समझते हैं। वैज्ञानिक अंधविश्वास और कर्मकांडों को अस्वीकार करता है लेकिन मूलतत्व से विज्ञान का विरोध नहीं हैं। अपने लेख में उन्होंने आइंस्टीन जैसे महान वैज्ञानिक का भी रेफरेंस दिया।
महान वैज्ञानिक आइंस्टीन वैसे नास्तिक थे, पर उन्होंने लिखा- वैज्ञानिक की धर्म भावना प्राकृतिक नियमों की एकता और सुसंगति को देखकर आनंदातिरेक जनित विस्मय के रुप में प्रगट होती है। प्राकृतिक नियमों की इस एकता में जिस श्रेष्ट बुद्धि वैभव के दर्शन होते हैं, उसकी तुलना में मानव जाति की समस्त व्यवस्थित चिन्तना और क्रिया नितांत और महत्वहीन बौद्धिक शक्ति जान पड़ती है। मनुष्यों को जहां तक स्वार्थपूर्ण इच्छाओं के बंधनों से अपने को मुक्त रखने में सफलता मिल पाती है, वहां तक परभावना उसके जीवन और कार्य का निर्देशक सिद्धांत बनाती है। निर्विवाद रुप से यह युगों की धार्मिक प्रतिभाओं को प्रभावित करने वाली चेतना से मिलती जुलती भावना है।
अपने लेख में परसाई जी ने लिखा है कि धर्मानुभूति स्वंय के त्याग से ऊपर स्तर की चीज है, इसका ये मतलब नहीं कि सुबह भगवान की पूजा की, तिलक लगाया, दुकान गए और दिन भर लोगों को लूटा । वो लिखते हैं…
सत्य की खोज धर्म और विज्ञान दोनों का लक्ष्य है। इरेस्मक ने कहा है- जहां कहीं तुम्हारा सत्य से सामना हो, उसे ईसाई मानो। यह भी कह सकते हैं जहां कहीं सत्य से तुम्हारा सामना हो उसे वैष्णव धर्म मानो। जहां कही तुम्हारा सत्य से सामना हो उसे इस्लाम धर्म मानो। बहुत से साधक चिंतक सत्य को ही ईश्वर मानते हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि सत्य यदि ईश्वर है तो प्रयोगों से हम उसी की खोज कर रहे हैं।
हरिशंकर परसाई ने बताया कि विज्ञान धर्म का विरोध नहीं करता बल्कि कुछ सवाल करता है।
विज्ञान धर्म से यही प्रश्न करता है। विज्ञान कई हैं, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, समाज विज्ञान, अर्थ विज्ञान, नृत्य विज्ञान आदि। ये सब धर्म को प्रश्न पत्र देते हैं। उसकी परीक्षा लेते हैं। विज्ञान में कोई पैगबंर या देव-दूत नहीं होता है। वैज्ञानिक को कोई ‘इलहाम’ नहीं होता। विज्ञान किसी पुस्तक को ईश्वर की लिखी नहीं मानता जैसा श्रद्धालु वेदो को ईश्वर की रचना मानते हैं। विज्ञान प्रमाण चाहता है। प्रमाण तीन तरीके के माने गए हैं प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द।
अपने लेख में वो लिखते हैं कि विज्ञान की वजह से बहुत सी भ्रांतियां और अज्ञान खत्म भी हुआ है।
विज्ञान ने बहुत सा अज्ञान नष्ट कर दिया है। अंधविश्वास के लिए मनुष्य बाध्य नहीं है। आस्था की जगह उसे तर्क मिल गए हैं। विज्ञान ने मनुष्य से भय भी दूर कर दिए हैं। हालांकि नये भय भी पैदा कर दिए हैं। विज्ञान तठस्थ (न्यूट्रल) होता है। उसके सवालों का चुनौतियों का जवाब धर्म को देना होगा। मगर विज्ञान का उपयोग जो लोग करते हैं, उसमें वह गुण होना चाहिए, जिसे धर्म देता है। वह ‘आध्यात्मिक’ (स्पिरिचुएलिज्म)-- अंतत: मानवतावाद। वरना विज्ञान विनाशकारी भी हो जाता है।