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हरिशंकर परसाई का व्यंग्य: जरूरत है सामाजिक आन्दोलनों की

Updated Mon, 13 Nov 2017 06:17 PM IST
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Harishankar Parsai
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विस्तार

हिंदी के व्यंग्य सम्राट कहे जाने वाले हरिशंकर परसाई ने ये लेख 1980-90 के दशक में लिखा था। जहां सामाजिक आन्दोलनों के पीछे होने वाली राजनैतिक साजिशों पर कटाक्ष किया था। समय बदला लेकिन ये लेख आज भी तार्किक प्रतीत होता है। नई पीढ़ी को इस लेख को जरूर पढ़ना चाहिए, ताकि वो आज की समाज सेवा और राजनीति के फर्क को समझ सकें। ये लेख वाणी प्रकाशन द्वारा छपी  'ऐसा भी सोचा जाता है 'किताब से लिया गया है। 

एक अच्छा समाचार पढ़ने को मिला। महादेव गोविन्ग रानाडे ने 1988 में एक संगठन शुरू किया था। उसका नाम था ‘सामाजिक परिषद’। इसका उद्देश्य समाज सुधार था। न जाने कब इस संगठन ने कार्य बन्द कर दिया होगा। पिछले दिनों महाराष्ट्र के बौद्धिकों ने इस संगठन को फिर आरंभ किया है। इसका उद्देश्य समाज सुधार है। इसमें प्रसिद्ध वैज्ञानिक जयंत नार्लीकर प्रमुख हैं। नार्लीकर ने कहा है- हम लोगों को वैज्ञानिक दृष्टि देंगे और अंधविश्वास मिटायेंगे।   

मैं खुश हुआ। कारण है। मैं कई बार मित्रों से ये कहता रहा हूं कि हमारे देश में कोई सामाजिक आंदोलन नहीं है, जैसे 19वीं सदी में और इस सदी के आरम्भ में थे। सारे आंदोलन राजनैतिक हैं। जातियों के छोटे-छोटे सामाजिक आंदोलन हैं, जिनके बारे में कभी कभी अखबारों में छपता है कि इन्होंने बिना दहेज सामूहिक विवाह करा दिए। पर उसी जाति के लोग मुझे बताते हैं कि सब दिखावा है। परदे के पीछे दहेज का लेन-देन हो जाता है। 

स्वाधीनता आंदोलन के दौर में गांधी जी ने राजनैतिक आंदोलन के साथ सामाजिक सुधार के आंदोलन भी चलाए थे। वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध आंदोलन, हरिजन उद्धार, नारी स्वाधीनता और शिक्षा ऐसे आंदोलन संपूर्ण स्वाधीनता आंदोलन में समाहित थे। पर आजादी के बाद इस देश में सिर्फ राजनैतिक आंदोलन चलने लगे। 1952 और 1957 के चुनावों तक तो वे लोग थे जो गांधी जी के नेतृत्व वाले स्वाधीनता आंदोलन में शामिल थे। गांधी जी का सबसे अधिक जोर नैतिकता पर था। वे सब समस्याओं का हल नैतिकता से करना चाहते थे। आर्थिक समस्याओं का हल भी नैतिकता से करना चाहते थे, जो वैज्ञानिक नहीं है। 52 और 57 के चुनावों वाले राजनेता, चाहे कांग्रेसी हों, चाहे समाजवादी, कुछ नैतिकता लिए थे। इनमें भी पतनशीलता आ गई थी, इसे भोपाल के प्रचंड नेता शाफिर अली खां, एक लतीफे से बताया करते थे। लतीफा ऐसा है- स्वाधीनता संग्राम के नेता जो सत्ता में आ गए थे अपने कस्बे में गए । उन्हें गांव के बूढ़ों ने घेरा और कहा- आप नारा लगवाते थे- इंकलाब जिंदाबाद, उजड़े घर होंगे आबाद। हम में से कुछ इस नारे पर जेल भी गए थे। अब इंकलाब हुए और आजादी आए काफी साल हो गए, पर हमारे घर तो वैसे ही उजड़े हैं। नेता ने संजीदगी से कहा- तुम लोग गलत समझे। वह नारा तुम्हारे घर के बारे में नहीं था, मेरे घर के बारे में था। और देख लो वह मेरा आलीशान घर। यानी पतनशीलता बढ़ रही थी। सन् 1960 के बाद राजनीति में वे बहुतायत से आ गए जिनका स्वाधीनता संग्राम से कोई लेना देना नहीं था। ऐसे लोगों को ‘कैरियर पालिटिशियन’ कहते हैं- यानी वे जो दूसरे धंधों की तरह राजनीति को भी धंधे की तरह करते हैं। 

अब हुआ यह कि राजनीति के प्रति सबसे बड़ा आकर्षण हो गया- धंधे की राजनीति के प्रति। प्रतिष्ठा राजनीति से मिलने लगी। राजनैतिक पद सबसे शोभावान हो गया। लोकप्रियता राजनीति से मिलने लगी। शक्ति और रोब-दाब राजनीति देने लगी। समाज के दूसरे क्षेत्रों को छोड़कर लोग राजनीति में जाने लगे। हर चुनाव के पहले अच्छे डॉक्टर, अच्छे अध्यापक, अच्छे समाजसेवी, राजनैतिक दलों में जाकर चुनाव टिकिट के याचक होते हैं। पिछले चुनाव के वक्त मेरे अच्छे परिचित एक अच्छे डॉक्टर एकाएक राजनीति में चले गए और विधानसभा की टिकिट मांगने लगे। मैंने कहा- आप इतने अच्छे डॉक्टर हैं आपको विधायक बनने की ऐसी क्या जरूरत है? क्यों आप जैसा शरीफ आदमी राजनीति में जाना चाहता है, जहां अब ज्यादातर लुच्चे लफंगे हैं? उन्होंने कहा- पैसा कमाना ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। कुछ देश-सेवा भी करनी चाहिए। मैंने कहा- देश का अर्थ हिमालय, गंगा, सतपुणा नहीं है। देश के नागरिक हैं। आप आधे गरीब मरीजों की मुफ्त सेवा किया कीजिए। यह काफी देश-सेवा होगी और हवाई देश-सेवा नहीं ठोस देश-सेवा होगी। उन्होंने कहा- डॉक्टर विधानचंद्र राय जैसे श्रेष्ठ डॉक्टर देश सेवा के लिए राजनीति में चले गए थे। मैंने कहा- वह राजनीति दूसरी थी, समय दूसरा था। वह स्वाधीनता संग्राम की राजनीति थी। वह जेल जाने, पिटने की, त्याग और बलिदान की राजनीति थी। अब प्राप्ति की छीन-झपट की, भ्रष्टाचार की राजनीति है। आप क्या करेंगे? तबादले कराएंगे, अपराधियों को पुलिस से बचाएंगे, अफसरों पर रोब गालिब करेंगे, ठेके दिलाएंगे, खुशामदियों से घिरे रहेंगे और जोड़-तोड़ करके मंत्री बनने की कोशिश करेंगे। विधानचंद्र राय तो मुख्यमंत्री थे तब भी चिकित्सा करते थे, अधिकतर गरीबों की। वे बोले- मैं भी डॉक्टरी छोड़ूंगा नहीं। मैंने कहा-साल में लगभग सात महीने विधानसभा का अधिवेशन होता है आपको पांच महीने ही डॉक्टरी करने को बचेंगे। आप न ईमानदार विधायक होंगे, न ईमानदार डॉक्टर। उन्होंने कहा- नहीं, मैं जब विधानसभा होगी, हर शुक्रवार को आ जाउंगा और इतवार रात तक रहूंगा। मैंने कहा- यानी बाकि पांच दिन आपके गंभीर मरीज यमराज के भरोसे होंगे! 

मैं नहीं मानता कि कोई आदमी अराजनैतिक होता है। पर मेरी चिंता है कि अच्छे अच्छे लोग, अच्छे सामाजिक काम छोड़कर राजनैतिक दलों में जाकर सत्ता की जोड़-तोड़ में लग जाते हैं। कहा जाएगा कि राजनीति भी समाजसेवा करती है। किस तरह करती है? दहेज एक सामाजिक बुराई है। राजनीति दहेज के खिलाफ कानून बना देगी। पर समाज में ऐसे संगठन या शक्तियां नहीं हैं जो लोगों को दहेज लेने से रोकें- नैतिक और सामाजिक दबाव में। इसके अभाव में दहेज विरोधी कानून अप्रभावशाली हो गया। मुझे एक सज्जन ने रोते हुए बताया-मेरे होने वाले समधी ने इतनी अच्छी बातें की थीं। कहा था-दहेज एक पैसा नहीं लेंगे। यह अभिशाप है पर अब जब निमंत्रण पत्र भेज चुके हैं तब उनका रजिस्टर्ड पत्र मिला कि पचास हजार रुपये लेंगे। हम कर्ज ले रहे हैं। घर के गहने और सामान बेच रहे हैं। मैंने कहा- उस चिट्ठी पर आप फौजदारी मामला दायर कर सकते हैं। उन्होंने कहा- मेरी दो लड़कियां और बैठी हैं उनसे कोई शादी नहीं करेगा। 

राजनीतिक लोग लाभ के लिए समाज-सुधार को रोकते भी हैं। जाति-प्रथा मिटनी चाहिए। पर ‘वोटबैंक’ बनाए रखने के लिए राजनेता जातिवाद फैलाते हैं, जाति युद्ध कराते हैं हिंदू मुसलमान के झगड़े तो मुख्यत: राजनीतिज्ञों के पैदा किए हुए हैं। मतों के लिए दंगे कोई धार्मिक आदमी नहीं कराते। राजनेता कराते हैं। अब दंगे आक्समिक नहीं भड़कते। योजना बनाकर दंगा कराया जाता है। सामाजिक शक्तियां इतनी बलवान नहीं है कि इन्हें रोक सकें। 

समाज में 'धन्य' और 'धिक्कार' की शक्तियां होती हैं। ये सामाजिक सदाचरण बनाए रखती हैं। मैंने पिछले कुछ सालों में समाज को इन शक्तियों को खाते देखा है। या गलत जगह प्रयोग करते देखा है। जो चालीस साल पहले धिक्कार पाते थे वो अब धन्य पाने लगे हैं। और जिन्हें धन्य मिलता था, वे अपमानित, पीड़ित और अवहेलित हैं। सामाजिक शक्तियां तटस्थ भी हो गई हैं। चालीस साल पहले जो घूसखोर बदनाम हो गया, वह सिर उठाकर नहीं चलता था। वह समाज में धिक्कार पाता था। आज वह सफल आदमी माना जाता है। वह ऊंचा सिर करके चलता है। लोग उसकी हवेली दिखाकर तारीफ करते हैं- बड़ा चतुर है यह आदमी। देखो क्या हवेली तानी है। लाखों बैंक में हैं। एक हमारे बेटे हैं। दस साल नौकरी करते हो गए। सूखी तनखा घर लाते हैं, बिल्कुल बुद्धू हैं। 

सदियों के अनुभव, विवेक, प्रज्ञा और संवेदना से जो जीवन मूल्य हमने विकसित किए थे, उन्हें आजादी मिलते ही चालीस सालों में नष्ट कर लिया। अब सरकार और संगठन प्राचीन शिल्प और चित्र ले जाकर विदेशों में दिखाते हैं कि इतनी महान और समृद्ध संस्कृति है। कोई पूछे कि अब आप कैसे हैं? सौंदर्य रचना संस्कृति का अंग है। पर आप तो कुरूपता की रचना कर रहे हैं। 

होता यह है कि कोई लोग यदि सामाजिक संगठन बनाकर अपने समुदाय में सुधार लाना चाहें, तो उनमें राजनेता घुस आते हैं। बिन बुलाए आते हैं। एक सज्जन ने मुझे बताया- हमारी जाति का संगठन है। काफी सालों से हम जो बनता है, सुधार कर रहे हैं। मसलन बिना दहेज शादी कराते हैं। अंधविश्वास भी कुछ तो कम करते हैं। पर हमारी आफत राजनैतिक दल कर रहे हैं। सम्मेलन हो रहा है तो कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी वाले दोनों हम पर जोर डाल रहे हैं कि उनको नहीं, हमको बुलाओ। वे समझते हैं ये इकट्ठे मत हैं। हड़प लो। हममें सब पार्टियों में विश्वासी लोग हैं। पर हम खुले रूप में किसी पार्टी के साथ होना घोषित नहीं करना चाहते। ये नेता हमारा संगठन ही तोड़ देंगे। मैंने उन्हें सुझाव दिया- तुम हमारे शहर के दोनों विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को बुला लो। और यहां की चर्च के बिशप को बुला लो। ईसाई मुख्य अतिथि होगा तो हिंदू आपस में नहीं झगड़ेंगे।

कितनी समस्याएं हैं, जो राजनीतिक आंदोलन और सरकार नहीं हल कर सकती। कई अरब रुपये खर्च करके भी जो किराये के शिक्षा सेवक का काम कर रहे हैं, वे प्रौढ़ों को शिक्षित नहीं कर सके। इस सरकार प्रौढ़ शिक्षा मिशन में रजिस्टर में खाए हुए रुपयों का हिसाब और प्रौढ़ों के नाम दर्ज करने का काम होता है। कारण यह है कि सब शिक्षा कर्मी 'मिशनरी' नहीं 'मर्सिनरी' हैं। यह इतना बड़ा पाखंड जल्दी खत्म हो तो अच्छा है। इससे विपरीत मुझे बताया गया है कि किन्हीं जिलों में स्वयंसेवी संस्थाओं, लेखकों, संस्कृति प्रेमियों ने प्रौढ़ शिक्षा का बहुत काम किया है। एक भी पैसा लिए बिना। दो जिलों के कलैक्टरों के बारे में मुझे बताया कि वे व्यक्तिगत रुचि लेकर इस काम में सहयोग करते हैं। दहेज प्रथा के विरुद्ध कानून से यह रुका नहीं। बढ़ गया। रकम बढ़ गई। दूल्हे की नीलामी होने लगी। पर मेरी जानकारी में ऐसी शादियां हुई हैं, जिनमें सामाजिक दबाव के कारण दहेज नहीं लिया गया। सरकार पुलिसमैन के रूप में साकार होती है। सामाजिक शक्ति अदृश्य पर व्यापक और कानून से अधिक कारगर होती है। 

पर समाज की इन शक्तियों को जगाने वाला सामाजिक आंदोलन कोई नहीं है। राजा राममोहनराय और ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे बौद्धिक नेता और सक्रिय आंदोलनकारी नहीं है। राममोहन राय ने आंदोलन करके समाज को तो सचेत किया ही, ब्रिटिश सरकार से सती-प्रथा के विरोध में कानून भी बनवाया। ईश्वर चंद्र विद्यासागर प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने विधवा विवाह के लिए सक्रिय आंदोलन भी चलाया। विवेकानंद कोरे वेदांती संन्यासी नहीं थे। वे वर्ग चेतन क्रांतिकारी थे, साम्राज्यविरोधी थे। 

महाराष्ट्र में महात्मा ज्योतिबाफुले हो गए हैं। इस विकट आदमी ने वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन चलाया था। तब ब्राह्मणवाद को चुनौती दी। स्त्री-शिक्षा का प्रसार किया। इन लोगों ने कोई राजनैतिक पद नहीं चाहा। प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन पर जो जलसा पूना में हुआ उसमें कुर्सियां तोड़कर जमीन पर बैठे महात्मा फुले ने कहा- आप अपने राज्य में शिक्षा का प्रबंध कीजिए। शिक्षा ही उन्नति की कुंजी है। महाराष्ट्र में ही पंडिता रमाबाई रानडे हो गई हैं। वे पंडित की बेटी थी और वास्तव में पंडिता थी- वेद, उपनिषद, शास्त्र में पारगंता। पर वे बाद में ईसाई हो गईं। इन पंडिता रमाबाई रानडे ने नारी-मुक्ति और नारी-शिक्षा के लिए बहुत काम किया। केरल में नारायण गुरू हो गए हैं। उन्होंने ब्राह्मणवाद का मुकाबला किया। शूद्रो को पुरोहित बनाया। मंदिरों में भगवान की प्रतिमा के स्थान पर दर्पण रखवाया जिसमें आदमी अपने को देखे और समझे। 

इन समाज-सुधारकों में कोई राजनीति की तरफ नहीं दौड़ा। किसी ने राजनैतिक महत्वकांक्षा नहीं पाई। पद नहीं चाहा। केवल समाज-सुधार के लिए सक्रिय आंदोलन चलाए। अब ऐसे लोग नहीं है, और न ऐसे आंदोलन। जो हो सकते हैं वे राजनैतिक पद की तरफ दौड़ते हैं। आवश्यकता है सामाजिक आंदोलनों की। लेकिन हमने समाज-सुधार का जिम्मा कानून और पुलिस को दे दिया है।  

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