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हरिशंकर परसाई का क्लासिक व्यंग्य: विवेकानंद के क्रांतिकारी विचार

दीपाली अग्रवाल, टीम फिरकी, नई दिल्ली Updated Thu, 11 Jan 2018 11:12 AM IST
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व्यंग्यसम्राट हरिशकंर परसाई ने ‘विवेकानंद के क्रांतिकारी विचार ’ शीर्षक का एक व्यंग्य लिखा जोकि उनकी किताब ‘ऐसा भी सोचा जाता है’ में छपा था। किताब का प्रकाशन वाणी प्रकाशन द्वारा सन् 1985 में किया गया था।  

स्वामी विवेकानंद का प्रचार एक संन्यासी और धर्म-प्रचारक के रूप में ही अधिक किया जाता है; एक सामाजिक तथा राजनैतिक चिन्तक और प्रचारक के रूप में लगभग नहीं के बराबर। सही है कि वे नव वेदान्तवादी थे। इस कारण शरीर को प्रकृति के नियमों से बंधा और आत्मा को स्वतंत्र मानते थे। वे चैतन्यवादी थे। चेतना से पदार्थ (जगत) की उत्पत्ति मानते थे। लेकिन पूरी तरह चैतन्यवादी भी नहीं थे। वे पदार्थ की महत्ता मानते थे और पदार्थ (जगत) का प्रभाव भी चेतना पर मानते थे। 

गांधी जी की चेतना अफ्रीका के लोगों की और भारतीयों की वस्तुगत स्थिति के प्रभाव से बनी। और फिर गांधी जी की चेतना ने वस्तु-जगत को प्रभावित किया। विवेकानंद कोरे चैतन्यवादी नहीं थे। वे सिर्फ आत्मा की साधनावाले नहीं थे। जो चिन्तक यह कहे- भूखे आदमी के लिए धर्म का कोई अर्थ नही है- वह संवेदनशील मनुष्य होकर भूखों की अवहेलना कैसे कर सकता है।

विवेकानंद के साम्राज्यवादी विचारों को बताते हुए परसाई जी ने लिखा है कि

विवेकानंद ने भारत का भ्रमण किया साम्राज्यवादी और देशी शोषण को समझा। गरीबी देखी। श्रमिकों और किसानों की दुर्दशा को देखा। ऊंचा वर्ण और ऊंचा वर्ग दोनों को नीचेवालों का शोषण करते देखा। विवेकानंद कोरे संन्यासी नहीं थे। वे रामकृष्ण परमहंस की बात मानते थे कि धर्म का परम उद्देश्य सत्य की खोज और मनुष्य का मंगल है।

विवेकानंद ने साम्राज्यवाद का बड़ी बारीकी से अध्ययन किया। वे विश्व-साम्राज्यवाद के खिलाफ थे। केवल भारत के नहीं। वे फ्रांसीसी क्रांति से भी प्रभावित थे जिसके घोषित आदर्श थे- स्वाधीनता, समानता और भाईचारा। इसी क्रांति के वक्त मानव-अधिकारों का घोषणा-पत्र जारी किया गया था। जैसे विवेकानंद एक विश्व-धर्म मानव-धर्म की कल्पना करते थे वैसे ही वे विश्व के हर समाज की स्वाधीनता चाहते थे।

भारत की दुर्दशा के बारे में उनका कहना था कि एक तरफ तो हम निष्क्रिय रह कर प्राचीन गौरव के गर्व में फंस गए, दूसरी ओर हीनता की भावना से दब गए, तीसरे सारी दुनिया से काटकर घोंघे में बंद हो गए। विवेकानंद पुरातनवादी नहीं थे। आधुनिक थे। वे कहते थे, जिस प्राचीन अध्यात्मिक शक्ति पर गर्व करते हो, उसे अपने भीतर फिर जगाओ। अभी वह तुम्हारे भीतर नहीं है। हीनता की भावना को त्यागो और आधुनिक विश्व से, उसके ज्ञान-विज्ञान से जुड़ जाओ। वे युवकों का आह्वान अक्सर करते थे। तुम युवक-सह काम करो। जाति को जगाओ। उसे आत्मशक्ति दो। उसे आधुनिक बनाओ। तभी हमारा समाज स्वतंत्र होगा और सामाजिक न्याय की व्यवस्था भी होगी।

स्वामी विवेकानंद की संवेदनशील विचारधारा 

विवेकानंद संपूर्ण मानव-जाति के लिए सोचते थे। उनकी संवेदना सारी दुनिया के दलितों के लिए थी। पर वे अतीत में भारत के गौरव से प्रेरित थे, भारत की सभ्यता, संस्कृति, अध्यात्म को श्रेष्ठ मानते थे और नए शोषणहीन न्यायपूर्ण सुखी विश्व के निर्माण में भारत की विशिष्ट भूमिका मानते थे। भारत के उज्जवल अतीत के प्रति उनका गौरव उन जड़ पुरातनवादियों के विपरीत था, जो उसी अतीत में जीते हैं।

विवेकानंद अतीत पर गर्व करते थे, तो उसकी आलोचना भी करते थे। उनका यह विश्वास ऐतिहासिक तथ्य है कि जब यूरोप जो अठारवीं सदी से विश्व को बर्बर मानकर उसे सभ्य बनाने में लग गया, जब खुद असभ्य और बर्बर था, तब भारत बहुत सभ्य था। यह भी मानते हैं कि ग्रीक सभ्यता, जिससे सीखकर पूरा यूरोप सभ्य हुआ, बहुत बाद की है। उससे कई सदियों पहले भारत कहीं अधिक सभ्य और सुसंस्कृत था। यह गर्व जड़वाद नहीं हैं प्राचीन के 'यूटोपिया' (कल्पना लोक) में आराम करना है। प्राचीन भारत के, विशेषकर वैदिक युग के 'यूटोपिया' में तो उन्नीसवीं सदी के नैतिकवादी बौद्धिकों ने भी शरण ली थी, जब वे औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप बदलते जीवन और मूल्यों से घबड़ा गए थे। इनमें रस्किन भी थे और मैक्समूलर भी।

विवेकानंद के सामने भारत की दुर्गति के कारण स्पष्ट थे- पुरातनवाद, वर्ण-व्यवस्था, साम्राज्यवाद, वर्ग-शोषण। जहां दूसरे आध्यात्मिक चिन्तक या तो जनता को प्राचीन में ले जाते हैं या आत्मा की मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं, जो खुद उन्होंने नहीं देखा; वहीँ विवेकानंद भारत के अध्यात्म को पश्चिम के विज्ञान से जोड़कर, नवजागरण और नवनिर्माण की बात करते हैं। वे सारे सड़े-गले प्राचीन को फेंक देने को कहते हैं। हीनता की भावना को मिटाते हैं। आत्मविश्वास देते हैं। वे सारे राष्ट्रीय और व्यक्तिगत जीवन को बदलने के लिए सम्पूर्ण क्रान्ति का आह्वान करते हैं। 

 

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