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2017 के चुनाव के परिणाम आ रहे हैं। कुछ लोग खुश हैं तो कुछ दुखी। कहीं कोई जीता है तो दूसरी जगह हार गया है। लगभग सभी को होली मनाने का एक बहाना मिल गया है। जिनके पास आज बहाना नहीं है उनके पास कल होगा। राजनीति में कब क्या हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता है।
हर चुनाव में इस बात पर चर्चा ज़रूर होती है कि नेताओं ने इस बार लोगों को लुभाने के लिए क्या-क्या पैंतरे अपनाए। यहां हम रैलियों की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि चुनाव की ज़मीनी हकीकत पर कुछ कहना चाहते हैं। ये वही देश है जहां आज़ादी के 70 सालों बाद आज भी वोट खरीदे जाते हैं। वोट की इस खरीद फ़रोक्त के लिए हम नेताओं को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन इसके लिए क्या सिर्फ़ वो ही ज़िम्मेदार हैं?
इस देश में अगर कुछ लोग वोट खरीदना चाहते हैं तो वहीं कुछ लोग अपना वोट बेचना भी चाहते हैं। यहां हम बात कर रहे हैं देश की जनता की। क्या आपने कभी ये सोचा है कि देश की स्थिति में नेताओं के अलावा और किसका योगदान है? यानी हम लोग इस व्यवस्था के लिए किस हद तक ज़िम्मेदार हैं?
टीवी डिबेट में इस बात पर तो चर्चा होती है कि कौन सी पार्टी कितना पैसा बांट रही है, लेकिन इस बात पर कभी चर्चा नहीं होती कि वो पैसा और शराब आखिर ले कौन रहा है? नोट के बदले वोट आखिर दे कौन रहा है? ऐसा कहा जाता है कि राजनीति में नए लोगों को आना चाहिए। लेकिन क्या कोई बिना बैकअप के भारत में चुनाव लड़ सकता है?
जब कोई आम इंसान चुनाव लड़ने के बारे में सोचता है तो पहले तो उसके आस-पास के लोग हंसते हैं। उसके आस-पास वाले ही उसका साथ नहीं देते। कहते हैं कि चुनाव वही लड़ सकता है जिसके पास पर्याप्त पैसे हैं। इस बात के लिए सिर्फ़ पैसों पर चुनाव लड़ने वाले ही ज़िम्मेदार नहीं हैं बल्कि उस पैसे से आकर्षित होने वाले लोग भी ज़िम्मेदार हैं।
शहर के लोगों के साथ दिक्कत ये होती है कि वो सारे मुद्दों को तो बखूबी समझते हैं लेकिन वो कैंडिडेट देख कर नहीं बल्कि पार्टी या उसके किसी ख़ास चहरे को देख कर वोट करते हैं। ऐसे में दागदार उम्मीदवार भी चुनाव जीत जाते हैं जो कि लोकतंत्र के लिए हानिकारक साबित होता है।
लोग अपने अधिकारों के लिए तो रोते रहते हैं लेकिन अपने कर्तव्य भूल जाते हैं। हम में से बहुत से लोग वोट देने नहीं जाते। वोट न देने में शहर के लोग ही सबसे आगे हैं। गांव के लोग वोट देने ज़रूर जाते हैं। बहुत से लोग बड़ी शान से कहते हम कभी वोट देने नहीं जाते। हमें ये चुनाव समझ में ही नहीं आता।
इस देश में अगर जनता भी अपने कर्तव्य का पालन करे तो भी चुनावों की प्रक्रिया में कई बड़े बदलाव आ सकते हैं। जिस तरह नोट बांटने वालों पर कार्यवाही होती है वैसे ही नोट लेने वालों को भी सबक सिखाना ज़रूरी है। ये बात तो बिल्कुल साफ़ है कि गरीबी के आगे इस तरह की बातों का कोई मतलब नहीं लेकिन फिर भी बदलाव नेता नहीं बल्कि आम जनता लेकर आएगी।