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इरोम चानू शर्मिला ने 16 साल तक अपने राज्य के लिए एक बहुत लंबी लड़ाई लड़ी। जिस समय वो अपने करियर की ऊंचाइयों पर पहुंच सकती थीं और अपना घर बसा सकती थीं उस वक़्त उन्होंने अपने जीवन का एक सबसे बड़ा फैसला लिया। उन्होंने अफ्स्पा के खिलाफ़ एक जंग छेड़ दी।
वो ये जंग बंदूक से नहीं लड़ना चाहती थीं इसलिए उन्होंने अनशन का सहारा लिया। उन्होंने कहा कि वो तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगी जब तक मणिपुर से ये कानून हमेशा के लिए हट नहीं जाता। इस दौरान वो कई बार जेल गईं लेकिन 16 साल में उन्हें ये एहसास हो गया कि अब ये गांधी का देश नहीं रहा और लोग न उनके मुद्दे को समझ रहे हैं और न ही उनकी परेशानी को।
उन्होंने फैसला लिया कि वो अपना अनशन तोड़ देंगी और चुनाव लड़ेंगी। जो लोग अब तक उनके साथ थे वो अब उनके विरोध में आ गए। उन्होंने कहा कि अब वो शादी करके अपना घर बसाना चाहती हैं। लेकिन उनके इस फैसले का लोगों ने सम्मान नहीं किया। लोग उनसे दूर चले गए।
अपने लंबे अनशन के दौरान उन्हें बहुत ख्याति प्राप्त हुई। उन्हें ये उम्मीद थी कि चुनाव में उन्हें अपार जन समर्थन मिलेगा। आखिर उन्होंने मणिपुर के लोगों के लिए ही लड़ाई लड़ी थी। लेकिन जब चुनाव के परिणाम आए तो सब हैरान रह गए। उन्हें सिर्फ़ 90 वोट मिले। क्या करोड़ों की जनसंख्या वाले प्रदेश से उन्हें केवल इतने की उम्मीद करनी चाहिए थी? वो भी तब जब उन्होंने उन लोगों के लिए ही लड़ाई की।
सोचिये जिस महिला ने 16 वर्षों तक अन्न-जल ग्रहण नहीं किया हो वो भी केवल इसलिए ताकि उसके प्रदेश के लोग एक कानून से निजात पा सकें, उसको जब इतने कम वोट मिले होंगे तो उसपर क्या बीती होगी? इस वोट काउंट को देखते हुए ये लगता है कि जितने लोग उनके साथ अनशन के दौरान थे उन सबने भी उन्हें वोट नहीं दिया।
इस हार के लिए इरोम ज़िम्मेदार नहीं हैं बल्कि वो सभी ज़िम्मेदार हैं जिनके लिए उन्होंने ये अनशन किया। इसका एक अर्थ ये निकलता है कि इरोम के अनशन से कोई वास्ता नहीं रखता था। अगर ऐसा था तो लोगों को जाकर उन्हें ये समझाना चाहिए था कि इरोम आप अपना अनशन तोड़ दीजिए क्योंकि हमें इसमें अपना कोई फ़ाएदा नज़र नहीं आता है।
इरोम शर्मिला को मिले वोटों की संख्या ये दिखाती है कि अब इस देश में किसी मुद्दे को लेकर आंदोलन करने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। जब आप अपने साथ के लोगों तक ही अपनी बात नहीं पहुंचा पाते हैं तो सरकार तक क्या पहुंचा पाएंगे। समय ने लोगों को इतना असंवेदनशील बना दिया है कि उन्हें अपनी निजी समस्याओं के सिवा और कुछ नज़र नहीं आता है।
लोग आज अपने में संकुचित होते जा रहे हैं और केवल अपने हानि-लाभ के बारे में सोचते हैं। ऐसे में इरोम को भी उन लोगों के बारे में नहीं सोचना चाहिए था। इरोम के वोटों की संख्या देखकर तो कुछ ऐसा ही लगता है। इरोम ने राजनीति छोड़ने का फैसला करके बहुत अच्छा काम किया है। अब समय है कि वो केवल अपने बारे में सोचें और अपनी आने वाले जीवन को खुशनुमा बनाने में लग जाएं।
ये देश अब महात्मा गांधी को केवल नोट पर देखना चाहता है, असल ज़िंदगी में नहीं।