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खट्टर साहब को आपने भी सुना होगा। कहते हैं, बेहतर हो कि फिल्म न दिखाएं और अगर दिखाएंगे तो सुरक्षा तो देनी ही पड़ेगी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश का तो सम्मान करना पड़ेगा। बात कुछ गले उतरी नहीं। दिखाएं या न दिखाएं? सुरक्षा मिलेगी या नहीं मिलेगी? सरकार या उसकी मशीनरी कुछ करेगी या नहीं करेगी? मुरथल कांड के हुड़दंगियों की तरह अराजक तत्व घूमते रहेंगे, हिंसा होती रहेगी, सिनेमा हॉल, मॉल्स जलते रहेंगे या कुछ और होगा?
करणी सेना का ये हिट शो है। वो पीछे नहीं हटने जा रही अभी। लोकेन्द्र सिंह कालवी को इससे ज्यादा माइलेज कहीं और मिल नहीं सकता। राजपूतों के नाम पर ये सियासत का बेहतरीन मौका है। भंसाली साहब ने तो कमाल ही कर दिया। ऐसा शानदार मुद्दा दिया है कि कालवी जी की बल्ले बल्ले हो गई है। आखिर राजपूतों के आन, बान और शान का सवाल है। मीडिया के लिए भी ये गरमा गरम मसाला है। तोड़-फोड़, आगजनी और कट्टरवादी हो हल्ले में जो एक्शन और थ्रिल है वो सिनेमाहॉल के दो-ढाई घंटे की फिल्म में कहां मिलेगा।
आप गौर कीजिए। हंगामा करने वाले, तोड़फोड़ और आगज़नी करने वाले लोग मुट्ठी भर होते हैं, उन्हें रोकना और सख्ती से पेश आना प्रशासन का काम होता है। लेकिन जब आपको इस बात का डर सताने लगे कि कहीं इससे हमारे वोटबैंक पर फर्क न पड़ जाए, कहीं इससे हालात और न बिगड़ जाएं तब तो बात ही दूसरी है। लेकिन क्या हमारी सरकारें इतनी कमज़ोर हैं कि एक फिल्म से आतंकित हो जाती हैं या फिर चंद लोगों पर काबू नहीं कर सकतीं या फिर सरकारें इतनी चालाक हैं कि जानबूझ कर ऐसे विवादों को हवा देना और ऐसे तत्वों को बढ़ाना चाहती हैं जो आम लोगों को दूसरे ज़रूरी मुद्दों से भटका सकें?
खट्टर साहब तो सबकुछ बोल जाते हैं। इसिलिए बेचारे विवादों में घिर भी जाते हैं। लेकिन अपने राजस्थान वाले और एमपी वाले तो अब बिना कुछ बोले सुप्रीम कोर्ट चले जाते हैं और सीधे सीधे हथियार डाल देते हैं कि भई, शांति बनाए रखना उनके बस की बात नहीं है, बेहतर हो फिल्म रिलीज़ ही न हो। ऐसा ही गुजरात और यूपी की सरकारें भी सोच सकती हैं, लेकिन वो फिलहाल दूर से हवा का रुख पहचानने में लगी हैं। काल्वी साहब के लिए इससे आदर्श स्थिति और क्या हो सकती है। जगह जगह से उनके पास फोन आ रहे हैं। अचानक से उनका सेंसेक्स उछाल ले रहा है। बरसों तक यहां वहां पार्टियों में भटकने, चुनाव लड़ने की ख्वाहिश को पूरा करने लेकिन सियासी मुकाम न पाने की बेचैनी के बाद आज भंसाली साहब उनके बहुत काम आ रहे हैं। ऐसे में बेचारी दीपिका अपनी ‘नाक’ और ‘जान’ बचाए देश छोड़कर कुछ दिन तनाव से दूर रहने विदेश चली गई हैं।
लेकिन हमारा देश ऐसे तत्वों से ही चल रहा है। अगर ये तत्व न हों तो देश की दूसरी ज़रूरी समस्याएं सरकार को परेशान करने लगें। पेट्रोल-डीज़ल के आसमान छूते दाम से लेकर, रोज़मर्रा की मुश्किल होती ज़िंदगी सवाल बनने लगें। बेहतर हो ये हो हल्ला जब तक बना रहे, चलता रहे, बजट-वजट निकल जाए। वैसे भी आप किसी मोर्चे पर कुछ कर तो सकते नहीं। सामने 2019 है। फिर 2022 का बदला हुआ एक खूबसूरत इंडिया है। बस चंद ही सालों की तो बात है – अच्छे दिन आने ही वाले हैं।