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बरसात के बहाने व्यवस्था पर शरद जोशी का मजेदार व्यंग्य: बरसात में

दीपाली अग्रवाल, टीम फिरकी, नई दिल्ली Updated Mon, 15 Jan 2018 12:46 PM IST
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Sharad Joshi Satire barsaat ke bahane
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विस्तार

यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था। 

बादल घिर आये। देवी सटोरिया कभी ऊपर देखता है,कभी आसपास। सोच रहा है, मूंगफली के तेल के भाव इस साल चढ़ेंगे या नहीं? रिजर्व बैंक सख्त है, बाजार में रुपया नहीं खोल रहा। झमाझम रुपया आए, तो भाव और चढ़े। किसान ने काली घटा देखी और अनाज बोने में जुट गया। गेहूं की गाड़ियां मंडी की तरफ नहीं आ रहीं। सरकारी अफसर सोच रहा है, बड़े सरकारी अफसर को क्या जवाब देगा? हवा तेज हुई कि रेडियो खरखराने लगे। राष्ट्र की मक्खियों ने मध्यमवर्गीय घरों में घुसने का अभियान आरम्भ कर दिया। हवा में ठंडक देख बाबू ने केजुअल मार दी और बीवी से भजिये बनाने का आग्रह किया। वह मुस्कुरायी। बोली,"बेसन नहीं है।"

नालों में पानी तेज हुआ, स्कूली बच्चे पुलिया पर जमा हो गए। कॉपी के पन्ने फाड़ नाव बनाने लगे। अब इन्हें कौन बताये कि स्टेशनरी के भाव चढ़ गए हैं। बाजार में किताबें छपकर नहीं आयी हैं। इस बात पर विरोधी नेता शिक्षा विभाग लत्ते खींच रहा है। दोनों जानते हैं कि आ ही गयी, तो कौन छोकरों को पढ़ना है। थोड़ा वातावरण स्थिर हो, तो जुलूस और सभाओं की शुरुआत हो। किराये पर माइक देने वाले दुकानदार छात्र-नेताओं की ओर आशा-भरी निगाहों से देख रहे हैं। सुनार का लड़का 'डकबैक' की बरसाती पहने इंटर कॉलेज के छात्रों पर रोब गालिब किए है। मौसम में सुखद परिवर्तन आते ही शर्मा जी के घर मुन्ने को पतले दस्त लग गये और मां की पीठ में दर्द रहने लगा। बरसात आ गयी।

वातावरण भीगने का पहला असर ये हुआ कि फोन एंगेज मिलने लगे। सब सबसे बात कर रहे हैं कि आज शाम का क्या कार्यक्रम होगा? बोतल, उबले अंडे, मुर्गी की टांग, वही पुराने रद्दी शेर, जो पिछले साल भी सुने थे, फलां की बुराइयां, अमुक विषय में वादे और देर से घर लौटना। सब बहाने हैं। एक-दूसरे के सब माध्यम। असली चीज है, उमड़ती बरसात। अन्दर तक भेदती ठंडी हवा। यह फाइलों पर पेपरवेट रखने का मौसम है, चपरासी की गलती माफ करने का मौसम है, कैंटीन तक बार-बार जाने और आने का मौसम है। पत्नी के आग्रह से वे इस सप्ताह तीन बार मकान-मालिक के घर गये, छत दुरुस्ती की शिकायत लेकर। वह बोला,"मैं क्या करूं? कारीगर खाली नहीं है।" झूठा कहीं का!

पहली ही बरसात में फिर वहीं टपका, जहां पिछले साल टपका था। इतिहास ने अपने को दोहराया। भगोनी उसी जगह रखी गयी, जहां पिछले साल रखी गयी थी। छाता दुरुस्त करने वाले उम्मीद-भरी निगाहों से घर की तरफ देखते हुए धीरे-धीरे गुजर गये। पैसे नहीं थे।

दो दिनों में आंगन में हरी घास फूट आयी। आकाशवाणी के अफसर को ऐसे में हिंदी साहित्य सूझा। वह 'वर्षा मंगल' गोष्ठी का प्रपोजल बनाने लगा। कवियों के पास कवितायें हैं, वे जाकर सुना देंगे, पच्चीस-पैंतीस रुपयों में। पड़ोसी बता रहे थे। आज साबुन का भाव और चढ़ गया। दुकानदार कह रहे हैं,"बम्बई में भारी पानी गिरने से माल रेलों में नहीं चढ़ा।" बरसात में भाव बढ़ने का बरसात बहाना है। गर्मी में भाव बढ़ने का गर्मी बहाना थी। दर्जी स्कूलों के ड्रेस सी रहे हैं। मौसम वाकई में सुहाना है। मुहल्ले के बच्चे कहीं से एक कुत्ते का पिल्ला उठा लाये हैं और उसे दो टांग पर चलना सिखा रहे हैं। इरादा यह है कि अगर सीख गया, तो पांच पैसे टिकट पर सर्कस शुरु कर देंगे। दो बच्चे टिकट बनाने में लगे हैं। बड़ी उम्मीद वाला मौसम है। जयप्रकाश जी रोज ही किसी से गंभीर चर्चा कर रहे हैं।

जब फसल आयी, तब भाव गिरने की आशा थी। अब बादल आये, तो भाव गिरने की आशा हुई। लोग कह रहे हैं, नवम्बर-दिसम्बर तक हालत सुधरेगी। अखबार देर से आ रहा है, महंगा आ रहा है, भीगा हुआ आ रहा है, खबरें गीली हैं और कम हैं। तबादले पर जाता असिस्टेंट डायरेक्टर विदाई पार्टी में मक्खियां उड़ाता समोसे खा रहा है। लोग कह रहे हैं,"इस मौसम में ट्रांसपोर्टेशन में बड़ी दिक्कत होगी सर।" वह गवर्नमेंट को गाली दे रहा है। बरसात में गालियां नहीं लगतीं। पानी रुकने की प्रतीक्षा में यही एक गतिविधि रह जाती है। होटलों में बैठे साहित्यकार उन साहित्यकारों की बुराई कर रहे हैं, जो दूसरे होटल में बैठे इन साहित्यकारों की बुराई कर रहे हैं। सबको पानी रुकने की प्रतीक्षा है। पानी रुके तो, घर जाएं, घर जाएं, तो लौटकर आएं। ऐसे में कुछ नहीं हो रहा है। विरोधी वर्षा अधिवेशन में अविश्वास प्रस्ताव लाने की सोच रहे हैं। ऑफिस सुपरिण्टेण्डेण्ट रजाई-गद्दे फिर से भरवाने के लिए कृतसंकल्प हैं। सूट पहने बैठा बरसात को कोसता प्राचार्य प्रोफेसरों से नियमित कक्षाएं लेने का आग्रह कर रहा है। सद्गृहस्थिन अचार डाल रही है। वर्मा जी 'विटामिन बी काम्प्लेस' खरीद रहे हैं। बड़े इरादोंवाला मौसम है। गुप्ता जी कह रहे हैं, इस जाड़े में रानी की शादी निबटा देंगे, चाहे जो हो! रानी ने इस गर्मी में नये किस्म का जूड़ा बांधना सीख लिया है। कस्बे के सामाजिक कार्यकर्ता सोच रहे हैं। यदि सूखा टल ही गया है, तो अच्छा हो बाढ़ आ जाए। सरकार से पैसा रिलीज हो और संस्था काम भी करती रहे। अजीब मौसम है। लोग सर्वोदय के कार्यकर्ताओं की ओर आशा भरी निगाहों से देखने लगे हैं। 

और जैसा कि होना था, घटाएं घिरती देख मुख्यमंत्री दिल्ली चले गए। राजस्व मंत्री ने ट्रंक काल लगाया, तो लाइन नहीं मिली। लाइन मिली, तो मुख्यमंत्री नहीं मिले। मुख्यमंत्री मिले, तो खास बात नहीं हुई। कमाल मौसम है। चमचे रेनकोट पहने बंगलों की तरफ जाते हैं, तो कोई देख नहीं पाता। कब लौटते हैं, पता नहीं लगता!

अच्छा चल रहा है। और क्यों नहीं चलेगा? जिनका गर्मियों में खूब चला, उनका बरसात में क्यों नहीं चलेगा? बूंदाबांदी कुछ कम पड़ी है। भैया, अब घर निकल जाओ जल्दी, क्योंकि बाई साथ में है।

"हमारा क्या, हम तो भीगते निकल जाएं।" वह बोली 

सच है, बरसात का मजा कुछ और ही है। 
 

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