विस्तार
यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था।
भैंस और बगुले की दोस्ती का ताज्जुब कबीरदासजी को भी था- 'भैंसन्हि मांह रहत नित बकुला, तकुला ताकि न लीन्हा हो। गाइन्ह मांह बसेउ नहिं कबहू, कैसे के पद पहिचनबहू हो।' उनका अर्थ था कि यह जीवरूपी बगुला, यह मन, दिन-रात इन्द्रिय-रूपी भैंसों में रमा रहता है। गायों अर्थात संतों की तरफ इसकी दृष्टि कभी नहीं जाती। परम पद पाने की यह जाने क्यों नहीं सोचता? जहां तक राजनीति का सवाल है, परम पद तो प्रायः बगुलों को ही प्राप्त होते हैं। जो ऊपर से जितने सफेद और अन्दर से जितने घाघ और स्वार्थी होते हैं, राजनीति में उन्हें सर्वाधिक सफलता प्राप्त होती है। भैंसें बगुलों को अपनी पीठ पर बैठा लेती हैं। काले और असामाजिक धंधों के कीचड़ में फंसे लोग नेता को अतिरिक्त आदत देते हैं और नेता भी उनके बिना रह नहीं पाता। जीब इन्द्रियों में रमा रहता है। कबीरदासजी ने शरीर को चमड़े का गांव कहा है। राजनीति में भी कम लतिहाव नहीं है। इंच भर गहरी संवेदना नहीं होती पर मगर के आंसू जोर-शोर से ब्रॉडकास्ट किए जाते हैं। जो कुछ है सब ऊपरी। फिर चाहे शिक्षा पर जोर हो या गरीबों की फिक्र। सारे नारे और सिद्धांत अपने मजे के लिए रगड़े जाते हैं।
साधारण नागरिक आश्चर्य करते हैं कि कबीर की तरह ये सफेद बगुले गायों की तरफ आकर्षित क्यों नहीं होते? एक राजनेता उन ईमानदार, मेहनती, संघर्षशील शक्तियों से अपने को क्यों नहीं जोड़ता? पवित्रता से उसे क्यों एलर्जी है? वह क्यों भ्रष्ट, निठल्ले, कामचोरों, मुफ्तखोरों में रमा रहता है? वह क्यों सारे दुष्कर्मों के केंद्र में है? इसका उत्तर किसी के पास नहीं है कि बगुले भैंसों की तरफ क्यों आकर्षित होते हैं? नेता क्यों समस्त हीन प्रवृत्तियों का सूत्रधार हो जाता है। प्रजातंत्र की सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह है कि सामान्य जन मन ही मन नेताओं से नफरत करने लगा। इस सामूहिक भाव को उत्पन्न करने में सारी पार्टियों का योग रहा है। केवल कांग्रेस को श्रेय देना दूसरों के साथ अन्याय है। जो नेता बेईमान नहीं हैं वे भी पाखंडी तो कम-से-कम रहे हैं। जो चरित्र से पवित्र कहलाते रहे, पद-लोलुपता तो उनमें भी कम नहीं रही। अब एक दुर्गुण और एक दूसरे दुर्गुण में जो राई-रत्ती का अंतर है, उसे देश के साधारण जन नहीं समझ पाए तो बेचारों का क्या दोष! वे यह समझ नहीं पाए कि एक भ्रष्ट नेता की अपेक्षा पदलोलुप नेता अच्छा होता है।
बगुले और भैंस की मैत्री किसी वैचारिक अथवा सैद्धांतिक आधार पर है, यह साबित करना बहुत कठिन है। बगुला कुछ समय के लिए मछली पकड़ने का अपना प्रिय कार्य छोड़कर भैंसों के पास जाता है तो महज धूप सेंकने या कतिपय सांस्कृतिक गुत्थियों को सुलझाने के उद्देश्य से नहीं जाता। लगता है, वह भैसों को आमंत्रित करने जाता है। उकसाने, उत्तेजित करने जाता है। "आप यहां क्यों बैठी हैं? उठिए न! चलिए, पानी में चलिए। बहुत दिनों से हमने आपको नहाते नहीं देखा। सच, अच्छा बताइए, आप कितने दिनों पहले नहायीं थीं? कितनी गर्मी है! हम तो बगुले हैं, हवा में उड़ सकते हैं, फिर भी हमें इतनी गर्मी लग रही है। आपको नहीं लगती गर्मी? कैसी भैंस हैं आप? चलिए अब उठिए भी! कब तक बैठी रहेंगी!"
भैंसें उतरती हैं और पूरे तालाब में हलचल मच जाती है। एक गन्दी मछली पूरे तालाब को गन्दा कर सकती है तो भैंस का पूरी तरह उतरना क्या परिणाम उत्पन्न करता होगा, कल्पना कर सकते हैं। पानी में हलचल मचते ही मछलियां इधर-उधर परेशान दौड़ती हैं। भैंसें जब बीच तालाब की दुर्गति करने लगती हैं, तब मछलियां किनारे पर आती हैं। भैंसों को निमंत्रित कर लौटे बगुले वहां शांत भाव से बैठे रहते हैं। वे जानते हैं कि भैसों से घबरायी परेशान मछलियां इस तरफ आएंगी और उनका आहार बनेंगी। नेता जानते हैं कि भष्ट आर्थिक ताकतें जनता के लिए परेशानी उत्पन्न करेंगी। मिलावट होगी, चीजें बाजार से गायब हो जाएंगी, दाम चढ़ जाएंगे, जीना मुहाल होगा। भ्रष्ट काले धंधों में लगे नव-दौलतिये जब प्रवृत्त होंगे तब नित नयी समस्याएं खड़ी होंगी। वे प्रवृत्त हैं और समस्याएं खड़ी हैं। परेशानहाल जनता ऐसे में उनका मुंह तकेगी, उनको आशाभरी निगाहों से देखेगी। बस हो गयी राजनीति शुरू। नेता को यही तो चाहिए कि लोग उसके सामने मांगें रखें, गिड़गिड़ाएं और वह आश्वासन दे और उनकी भावना से खेल अपने वोट पक्के करे।
किनारे बैठा बगुला डेपुटेशन और परेशानहाल लोगों के जत्थों का इंतजार करता है। वे समस्या रखें और वह सुलझाए, यद्यपि वह जानता है कि समस्या उसके ही कारण उत्पन्न हुई है और हल असम्भव-से है। पर सब कुछ जानते बूझते भी शान्त भाव से संवेदनशील चेहरा बनाकर बातों को सुनना, ऐसा भाव दर्शाना कि इस यथार्थ की जानकारी तो मुझे पहली बार हुई है और एक मीठा और थोथा आश्वासन दे देना ही तो मात्र राजनीति रह गई है, इस युग में। वोटों की खातिर यही तो बगुलापन बार-बार नजर आता है नेताओं में।
तो बगुले भैंसों के पास व्यर्थ नहीं जाते। वे बहुत सोच-समझकर अपने स्वार्थों के वशीभूत हो भैंसों के पास जाते हैं। भैंसें भी व्यर्थ ही बगुलों को लिफ्ट नहीं देतीं। कितनी की काली हों, जब श्वेत बगुले उनके आसपास चमचों की तरह उचकते चक्कर काटते हैं तब उनका मान बढ़ना ही है। आश्चर्य नहीं कि इस बात को लेकर ने पवित्र गायों में एक प्रकार का हीनभाव भी जगाती हों।