विस्तार
यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था।
आदमी के जीवन और संसार की गति तेज हो गई है। यह शायद इसलिए कहा जाता है कि लोग एक जगह से दूसरी जगह पहले की अपेक्षा जल्दी पहुंच जाते हैं। लगता है, जीवन और संसार का अर्थ और लक्ष्य यहां से वहां पहुंचना ही है। जो जहां है, वहां से वह किसी और जगह पहुंच जाए, इसी का नाम जिंदगी है। पिछले पचास-सौ साल से मनुष्य जाति पूरे समय इसी इंतजाम में जुटी रहती है कि एक जगह से दूसरी जगह जाने के तरीके और साधन तेज और पुख्ता हों। सड़कें बनाना, उन्हें चौड़ा और मजबूत करना, नए अंदाज और रूप की कारें और बसें ईजाद करना, हवाई अड्डे और बीसियों तरह के छोटे-बड़े हवाई जहाज, रेलें, मोटरसाइकिल, स्कूटर, तीन पहिये के ऑटो और भी जाने क्या-क्या! सबको अपनी जगह से किसी दूसरी जगह जाना है। इसके लिए रास्ते और वाहन जरूरी हैं। आदमी का काम पूरी ताकत से इन्हें बनाते रहना है। इसकी एक हलचल है, जिसे हम प्रगति संबोधित कर देते हैं। कहते हैं, यही जीवन है, यही संसार है और इसकी गति तेज है। आदमी बहुत दूर तक टेलीफोन से बात कर लेता है, केबल पहुंच जाते हैं, अखबार खबरें लेकर चारों तरफ फैलता है। खोलने पर रेडियो दूर की खबरें देता है। गति बढ़ गयी है, इसमें शक नहीं।
यद्यपि चंपा का वृक्ष उतने ही समय में सुगंध-भरा फूल देता है, जितना वह चन्द्रगुप्त मौर्य के जमाने में देता था। लड़की उतने ही वर्षों में युवा होती है, जितनी हड़प्पाकाल में होती थी। प्रसव में उतने ही माह लगते हैं, जितने वैदिक काल में लगते थे। संपूर्ण शेक्सपियर पढ़ने में उतना ही समय लगता है, जितना पिताजी को लगा। बी.ए. हम उतने ही सालों में होते हैं। नौकरी पक्की होने में उतने ही समय की परेशानी होती है। दशहरी आमों के लिए आज भी पूरे बरस इंतजार करना पड़ता है, जितना वाजिद अलीशाह को करना पड़ता था। आदमी के डग लम्बे नहीं हुए। राम जिस गति से वनवास को गए, चंद्रशेखर उसी गति से अपनी कर्मभूमि दिल्ली लौटे। औरत श्रृंगार में आज भी कोई कम वक्त नहीं लेती। बादलों की गति वही है। प्रेमपत्र लिखने में वही समय लगता है, जो उषा-अनिरुद्ध के काल में था। मतलब यह कि अधिकांश मामलों में गति वही है, जो रहती चली आयी है। मोटा उपन्यास जल्दी समाप्त नहीं होता और मोटी औरत जल्दी दुबली नहीं होती। जीवन और संसार का अर्थ और लक्ष्य एक जगह से शीघ्रातिशीघ्र दूसरी जगह पहुंचना भर हो, तो बात दूसरी है। पृथ्वी के घूमने की गति वही है, हम चाहें पृथ्वी पर एक बिंदु से दूसरे बिंदु जल्दी पहुंच जाएं। वह तो सूर्य के सामने उतना ही समय चक्कर काटने में लेती है। वर्ष कोई जल्दी तो नहीं बीत जाता। फिर भी हमें गति पर गर्व है।
हम सब रेल के डिब्बे में बैठे हुए लोग हैं। चूंकि हमने गति को ही जीवन की पहचान बना लिया है, इसलिए इसके अलावा हम हो भी क्या सकते हैं! हम खुद तो तेज गति से चलते नहीं। हम जिस डिब्बे में बैठे हैं, वह चल रहा है। हम इस कल्पना से प्रसन्न हैं कि हम तेज गति से जा रहे हैं और इसी का नाम जीवन है। हमारी ट्रेजेडी यह है कि हमारे सामानांतर दूसरी पटरी पर भी एक रेल उसी दिशा में जा रही है, जिस दिशा में हमारी रेल जा रही है। वह रेल पीछे से आयी है और बराबरी पर चल रही है। हमें भय है कि वह हमसे आगे न बढ़ जाए। यद्यपि हम गति पर विश्वास करते हैं और उसे ही जीवन मूल्य मानते हैं पर हमें दूसरी रेल का, जो दूसरी पटरी पर है, चलना और हमसे आगे बढ़ जाना अच्छा नहीं लगता। इस कल्पना से हम असुरक्षित अनुभव करते हैं। दूसरे, जो उसी दिशा में जा रहे हैं, कहीं हमसे आगे बढ़ न जाएं। हम अपनी रेल को कोसते हैं। उसके ड्राइवर और उस समूची व्यवस्था को कोसते हैं, जो उतनी तीव्र नहीं है कि दूसरी रेल बढ़ न पाए। यद्यपि हम नहीं जानते कि अंतिम स्टेशन कौन-सा है, हमें कहां उतरना है, दूसरी रेल आगे चलकर कौन-सी दिखा लेगी और जल्दी पहुंचकर हम या वे क्या कर लेंगे। पर हमें लगता है कि यह अनर्थ घट रहा है कि एक रेल हमारे बराबर चल रही है और शायद हमसे आगे बढ़ जाए।
समुद्रगुप्त के जमाने में, मानिए एक व्यक्ति अपनी झोपड़ी के बाहर खाट पर बैठा है। उसके ठीक सामने वाले झोपड़े के बाहर भी एक व्यक्ति उसी तरह खाट पर बैठा है। दोनों दांत कुरेदते एक-दूसरे को कभी-कभी उचटती निगाहों से देख लेते हैं। समुद्रगुप्त का जमाना। दोनों में से एक भी व्यक्ति उठकर चलने नहीं लग जाता कि हम कहें कि फलां दूसरे की अपेक्षा प्रगति कर रहा है। अब आज के समय में आइए। सामानांतर पटरियों पर एक ही दिशा में जाने वाली रेलों के दो डिब्बों में वही रिश्ता और दूरी है, जो समुद्रगुप्त के काल में उन दोनों झोपड़ों के सामने बिछी खाटों में थी। वही कोण, वही परिप्रेक्ष्य, वही नाता। आप यह कह सकते हैं कि जीवन प्रगति कर रहा है, क्योंकि वे दोनों अब खाट पर नहीं बैठे, बल्कि चलती रेलों के अलग-अलग डिब्बों में बैठे हैं। क्या अंतर है? क्या अंतर है, समुद्रगुप्त के जमाने और आज के जमाने में? आप कहेंगे, तब झोपड़ी के आगे बिछी खाट थी और अब रेल का डिब्बा है। पर जिस चलती रेल से उतरने की जीवन- भर सुविधा नहीं, तो अंतर क्या हुआ दोनों स्थितियों में!
हमारा सारा दिन दूसरों को देखते बीत जाता है। इस नजर से कि कहीं वह हमसे आगे न बढ़ जाएं। यदि पहले ही बढ़ चुका है तो और न बढे़। पिछड़ जाए। हम उस तक पहुंच जाएं। उससे आगे बढ़ जाएं। एक रेडियो कंपनी अपना रेडियो हाथ में ले, दूसरी कंपनी की ओर उस नजर से देखे, तो शायद प्रतियोगी भाव समझ में आता है। पर मार्केट में मिलने पर हम एक दूसरे की पत्नियों, कारों, शर्टों और जूतों को भी इस नजर से देख लेते हैं कि कहीं वह हमसे अधिक सुखी तो नहीं हैं। दूसरे के घर जाते हैं, तो वहां भी चिंता यही रहती है कि देखें, यह कितना आरामदेह जीवन जी रहा है। बस पूरे वक्त रेल के डिब्बे में बैठे दूसरी रेल देख रहे हैं।
आजादी के बाद भारतीय मध्यमवर्ग खासतौर से इस प्रतियोगिता का शिकार हुआ। उसे इस पचड़े में फंसकर क्या मिला? डायनिंग टेबल, फ्रिज, टू-इन-वन, टी.वी., डनलपिलो, ठंडी बीयर, फर्स्टक्लास में यात्रा, इम्पोर्टेड साड़ी और बुश्शर्ट, कॉन्वेण्ट के उच्चारण में बोलने वाली औरत, जो बाहर समाज में माधुर्य बिखेरती है और घर में छोटी बातों पर तनाव उत्पन्न करती है। पार्टियां, चरित्रहीन लोगों से दोस्ती करने की मजबूरी। उसके सिर पर पड़ी दहेज की प्रथा, महंगी शादियां, बहुओं का जलना, बच्चों का पतन, अपने समाज से कटना, मां-बाप से दूरी और नफरत, बॉस की हद दर्जा खुशामद, मेहनत के बावजूद निरंतर असुरक्षा, बीमारी, हार्ट अटैक, नींद के लिए गोलियां, स्वाभिमान का अंत, बढ़ते अपराधों को सहन करना और उसके शिकार होना, ब्लैक और चोरी से कमाई, निरंतर बेईमानी, विशेष सामान घर पर न होने की अकुलाहट, सास-बहु का खिंचाव, नशा।
निरंतर रेल के डिब्बे में बैठे दूसरी रेल की प्रगति से परेशान पैसेंजरों को यह मिला। यह सवाल फिर भी बकाया है कि रेल कहां जा रही है? कौन सा स्टेशन हमारा लक्ष्य है? इस रेल का मालिक कौन है? टाटा, स्वराज्यपाल या श्रीमती गांधी! हम यह यात्रा अपने लिए कर रहे हैं या दूसरे के लिए? कहीं ऐसा तो नहीं रेल चल ही नहीं रही हो और हम एक-दूसरे को देखने में व्यस्त गतिहीनता से अपरिचित हों? कहीं कुल मिलाकर स्थिति वही तो नहीं, जो समुद्रगुप्त के जमाने में दो झोपड़ों के सामने बैठे दो लोगों के बीच थी। क्योंकि चंपा का वृक्ष तो उतने ही दिनों में फूल देता है, जितना तब देता था।