विस्तार
यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था।
चुनाव के जब पोस्टर लगते हैं, सारा देश परस्पर विपरीत नारों और विचारों से गूंज जाता है। देश की हर गली, हर मोहल्ला लगने लगता है कि अखाड़ा है, जहां एक निर्णय होगा। विराट जंगल के चौंकाने वाले नतीजे देश के भविष्य की दिशा मोड़ देंगे। हर व्यक्ति तन से, मन से और काली कमाई का मालिक हुआ तो धन से भी, उस विशाल द्वंद्व में उत्साह से हिस्सा ले हर पटखनी पर तालियां बजाने लगता है। नेता जीते तो ताली, नेता हारे तो ताली, फिर जीते तो ताली। कोई जीते कोई हारे, कुश्ती के अहसास सही होने चाहिए।
पर अब अंग्रेजों की खटिया खड़ी हुए और प्रजातंत्र को आये कितने साल बीत गये। इतने सालों में अखाड़ा घर लगने लगा। लोकसभा, विधान-सभाओं के गलियारे, कक्ष, लान, बेंचें, नरम कुर्सियां, गाड़ियां, कैन्टीन, लायब्रेरी सब मिलाकर एक विराट घर, विराटमहल हो गया। बाद गाली-गलौज के जब शांत हो बातचीत करने लगे, तो रिश्तेदारियां निकल आयीं। पता लगा कि लड़ अवश्य रहे हैं, आगे लड़ना भी है मगर एक ही स्वार्थ की पूर्ती कर रहे हैं। परस्पर विरोधी घोषणापत्रों को चीरती हुई एक किस्म की आत्मीयता उभर गयी। वही बोटक्लब, कलम लेने को वही समाधि, वही माइक वाला जो कभी इसके मोंगा लगाये तो कभी उसके। जलसा-रैली में वे ही लोग उसी एक ठेकेदार के सप्लाई किए हुए। वे ही भत्ते, वे ही सुविधाएं, इस एवेन्यू में तो कभी उस एवेन्यू में, बैठकें, बयान, कमेटियां, औपचारिकताएं, वही माहौल, निमंत्रण, आयोजन, गवर्नर की चाय, एम्बेसी के डिनर , राज्यों के विश्रामगृह, डाक बंगले। और सबसे बड़ी बात कि राजनीति करने के लिए उन ही धनाढ्यों से चन्दा, रकम, खर्चे का सहारा।
विरोध की गर्मी पर वातावारण की बर्फ जमा होने लगती है। मीठे दवाब अपना असर छोड़ने लगते हैं। कसार रहती है तो दल-बदल हो जाते हैं। रिश्ते टूटते हैं, पर पूरी तरह नहीं टूटते। आंख की शर्म बकाया रहती है और मौके पर अपना काम कर जाती है। सब नेता हो जाते हैं। इस पार्टी के हों या उस पार्टी के, सत्ता में बैठे हों या विरोध में- सब एक ही सिगड़ी से बदन सेंकते रहते हैं पांच साल। सूचना यह मिलती है कि लड़ाई चल रही है, सच्चाई यह है कि सामूहिक नृत्य हो रहा है। जहां सिरफुटौवल का आदेश था, वहां परस्पर सेहरे बांधने की रस्म होती नजर आती है। विचार मीठे हों या खट्टे, वे बरनियों में उतारे जाकर मुरब्बे और अचार का गुण अर्जित कर लेते हैं। स्वार्थों की खींचतान में दार्शनिक असहमतियां जायके के अतिरिक्त कोइ योग नहीं देतीं। पूरा प्रजातंत्र, पार्टीतंत्र रह जाता है, उत्तेजना निस्सरित करने के उद्देश्य से चन्द योग्य और अयोग्य अभिनेताओं द्वारा खेला गया एक नाटक। आपके संतोष या असंतोष का जो भी स्तर हो- आपको न अपना, अपना लगता है; न पराया, पराया। आप अन्याय से पीड़ित हैं तब भी विरोधी दल का नेता आपको अपने करीब नहीं लगता। उसकी ओर किसी उम्मीद से देखना मूर्खता लगती है। यदि आप तंत्र द्वारा प्राप्त लाभ और सुख के चस्के ले रहे हों, तब भी आप सत्ताधारी नेता को अपना नहीं समझते।
पार्टियां, संविधान, प्रजातंत्र की आवश्यकता और देश की अनेकानेक समस्याएं भी देश के लोगों को खड़ी धारियों में विभाजित नहीं करतीं, जैसा कि अपेक्षित है प्रजातंत्र से। उसकी बजाय जाने-अनजाने धीरे-धीरे पूरे देश के लोग एक लम्बी आड़ी धारी में विभाजित होते हैं। एक तरफ तंत्र रह जाता है, व्यवस्था रह जाती है। विरोधी दल भी उसी का एक अंश बनकर रह जाते हैं। उसी मंडप की शोभा, उसी कोरस के विशिष्ट स्वर। दूसरी तरफ पीड़ित समुदाय रह जाता है, मनुष्यों का। आदमी धीरे-धीरे महसूस कर लेता है कि उसे दूसरी शक्ल में वही पीड़ा भोगनी है, जो वह पहले भोगता था। प्रजातंत्र से फायदा उठाने वाले नेता यह अपेक्षा करते हैं कि गरीब भूखा-नंगा आदमी आजादी के बाद की इस प्रजातंत्र में मिली गरीबी फटेहाली को गर्व से देखेगा और इसकी तुलना उस भूख और गरीबी से कदापि नहीं करेगा, जो विदेशी सत्ताधारियों के जमाने में थी। मान लीजिए कि फटेहाल शख्स को ऐसा करना चाहिए। उसे अपनी झोंपड़ी से एक कागज की तिरंगी झंडी हर हालत में चिपका रखनी चाहिए। पर वह कब ऐसा करना बन्द कर देगा, आप कह नहीं सकते। दिल्ली के लिए भूख, गरीबी और पिछड़ापन एक आर्थिक समस्या है, एक बहस का विषय जिस पर अन्ततः योजना आयोग को विचार करना है। पर उस व्यक्ति के लिए जो परिवार को भूखा देख रहा है, कष्ट भोग रहा है, यह जिंदगी और मौत का मामला है। सहन की एक सीमा पर जाकर लम्बी हड़ताल से बेकार मजदूर को दत्ता सामन्त और फर्नाण्डीज- दोनों एक ही विशाल डिजाइन के हिस्से लगने लगते हैं। प्रजातंत्र की कितनी आपसी परेशानियां हों, पर आदमी का दर्द उसे उससे अलग और अकेला कर देता है।
आजादी के इतने वर्षों बाद सारी उत्तेजनाएं नकली लगने लगी हैं। ये ढेर-ढेर नेता, पार्टियों के भरे हुए टोकने-के-टोकने सब लगता है एक ही सजावट के हिस्से हैं। सत्ताधारी हो या विरोधी, दोनों को अलग करती रेखा उतनी ही पतली है।
ऐसे में ये नेता क्या रह जाते हैं? ये एक-दूसरे की छाया हैं। एक-दूसरे के प्रतिबिम्ब हैं। पूरा प्रजातंत्र लगता है एक विशाल शीशमहल है। आईनों की बस्ती। कबीर ने माया में भ्रमित व्यक्ति के लिए एक बहुत अच्छी उपमा दी है- 'जैसे स्वान कांच मंदिर में भर्मित भूकि मरयो।' शीशमहल में किसी को छोड़ दिया जाए तो वह जिधर देखेगा उसे अपना प्रतिबिम्ब ही नजर आएगा। वह बोलेगा, जवाब में उसकी छाया बोलेगी। जिस दिशा में घूमेगा, नजारा वही होगा। ऐसे ही पूरा जीवन बीत जाएगा। इतने वर्ष। प्रजातंत्र के कांच-मंदिर में। भर्मित घूमे। छाया-दर-छाया। नेता-दर-नेता। पक्ष या विपक्ष।