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शरद जोशी की कलम से निकला मजेदार व्यंग्य: कस्बे के छोटेलाल 

दीपाली अग्रवाल, टीम फिरकी, नई दिल्ली Updated Sat, 20 Jan 2018 05:18 PM IST
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sharad joshi satire kasbe ke chhotelaal
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विस्तार

यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था। इस व्यंग्य में एक छोटे से कस्बे के छोटेलाल की एक मजेदार कहानी है।

उन दिनों छोटेलाल वास्तव में छोटा था। उसकी दबी-सी गरदन और फूले गालों के बीच चमकती आंखें तब इतनी दबी और ऐसी चमकती हुई नहीं थीं। मुझे तब लगता था, इस शख्स की गति किसी दफ्तर में नौकरी टोह लेने से अधिक नहीं है। पर तब शायद मैं इस युग को और छोटेलाल को ठीक से नहीं समझता था। कस्बे की आत्मा वाले मेरे शहर के एक होटल और पान की दुकान के पास वह मिल जाता था और मुझे देख प्रसन्न भी होता था। हम क्षुद्र मानवों के प्रति एक सदाबहार उपेक्षा भाव आजकल उसकी दबी गरदन और फूले गालों के बीच चमकती आंखों में नजर आता है, तब नहीं था। वह सिगरेट धोंकता और खरी बात बोलता। उस समय यह धारणा आम तौर पर फैली हुई थी कि खरी बात का भविष्य उज्जवल है। कमोबेश हम सब इसी लपेट में थे।

तब एक दिन उसने बताया कि, वह बुद्धिमान होना चाहता है। मैंने कहा, "जिंदगी में पेट भरने के लिए यह तरीका बुरा नहीं है, हो जाओ।" उसने तब मुझे बुद्धिमत्ता का देसी मैकेनिज्म समझाया। बताया कि इस मशीन को चालू करने के लिए आरंभ में थोड़ी मेहनत करनी पड़ती है, पर बाद में सब कुछ ऑटोमेटिक हो जाता है। बुद्धिमान बनना जरूर कठिन है, पर एक बार हो जाने के बाद फिर कठिनाई नहीं है। मुझे उसकी बात में एक व्यावहारिक बुद्धिमानी नजर आई। पर जैसा स्पष्ट है, मैं तब समाज के बनते हुए मिजाज को ठीक से समझा नहीं था। एक उदयमान प्रबुद्ध के रूप में छोटेलाल ने बेहतर भांपा था। उसने मुझसे पढ़ने के लिए पुस्तकें मांगीं। 

एक दिन मैं और छोटेलाल अपने कस्बेनुमा शहर में घूम रहे थे। उस दिन लगभग पूरे शहर का चक्कर काटने के बाद अपनी विशेष ब्रांड की सिगरेट धोंकते हुए उसने निराशा से कहा कि यह शहर बहुत छोटा है। मैंने कहा, "इसमें हम क्या कर सकते हैं?।" वह बोला, "हम इसे छोड़ सकते हैं।" मैंने कहा,"क्यों नहीं हम यहीं रहकर इस शहर को बड़ा और भरापूरा करने की कोशिश करें।" वह मेरी ओर देखकर हंसा। क्षुद्र मानवों के प्रति उपेक्षा का जो सदाबहार भाव उसके चेहरे पर नजर आता है, वह उस दिन मैंने पहली बार देखा। मैंने कहा," हो सकता है, शहर छोड़ने के बाद हमारा व्यक्तित्व पूरी तरह खो जाए। हम किसी और बड़े शहर में डूबकर अपने को खतम कर दें।" वह बोला," ऐसा नहीं है। बड़े शहर में तंग गलियां होती हैं जो राजपथों को जोड़ती हैं। हो सकता है, उन उपयोगी गलियों के रहस्य जाल को हम आरम्भ में ना समझ पाएं, पर एक बार समझ जाने पर हम सारे माहौल पर अपनी पकड़ मजबूत कर लेंगे।" तब मुझे उसका एक वाक्य विचित्र लगा, पर उन दिनों बदलते मौसम की तस्वीर मैं ठीक से समझ नहीं पाया था।

छोटेलाल शहर छोड़ गया। उसने जोखिम मोल ली है, हम यही समझ रहे थे। मुझे कुछ दिनों यह अजीब कस्बा ही दर्द सालता रहा कि उसने वहां जाकर चिट्ठी नहीं लिखी। पर सच यह था कि छोटेलाल भविष्य में कूद गया था और उसे इस बात की फुर्सत नहीं थी कि वह अपने कस्बे या प्रांत को याद करे। एक दिन तो उससे मिलकर लौटे एक मित्र ने यह भी बताया कि छोटेलाल कहता है, मैं ऑल इंडिया हो रहा हूं। मेरा उस कस्बे या प्रान्त से कोई ताल्लुक नहीं है, जिसे याद कर मुझे शर्म आती है कि मैं वहां पैदा हुआ। मुझे संदेह हुआ कि क्या छोटेलाल वाकई बुद्धिमान हो गया है? मैं उससे गलत समझा था और जमाने को भी। 

छोटेलाल से मैं उस बड़े शहर में मिला कई वर्ष बाद वह मुझे एकदम अलग ही लगा। शहर का माना हुआ प्रबुद्ध था और उसकी मशीन उत्पादन करने लगी थी। मैंने उससे कहा कि मेरी अपेक्षा तुमने समय को बेहतर समझा है और प्रबुद्ध होना एक लाभदायी व्यवसाय है, यह तुमने उसी जमाने में खूब भांप लिया था। छोटेलाल ने मुझे एक और गुर की बात बतायी, जिसे सुन मैं दंग रह गया। वह बोला, "सिर्फ होने से काम नहीं चलता , हमें नाराज रहना सीखना चाहिए। सोसाइटी नाराज शख्स से डरती है, यद्यपि ऊपर से वह दिखाती है कि वह डर नहीं रही, पर बाद में समझौता हो जाता है। हमारी इमेज अगर प्रबुद्ध और नाराज शख्स की बन जाए तो यह बहुत बड़ी सफलता है।" शुरू में मैं उसकी बात समझ नहीं पाया, यद्यपि मैं बदलते माहौल को समझने का दावा करने लगा था। मैंने कहा, "तुम अपने को अकेला महसूस नहीं करते?" वह बोला, "यह कुछ दिनों की बात है। मैं जल्दी ही हलचल का केंद्र हो जाऊंगा। मेरी बड़े लोगों में, ऊंची सोसाइटी में पैठ होने लगी है। एक नाराज शख्स के रूप में वे मेरा आदर करते हैं।"

अपने कस्बेनुमा शहर में, भिन्न आतंकों में डूबा जब मैं लौटा, तो मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुझसे गलती कहां हो रही है? पहले मैंने सोचा कि मुझे पूरी तरह छोटेलाल को समझना चाहिए। फिर मैं स्थिति पर विचार करने लगा। मैं विचार करता और मेरी नाराजगी बढ़ती जाती। मेरी कस्बाई खुशमिजाजी को चीरते हुए कटुता बाहर आ जाती। चारों ओर फैल रहे ढकोसले, सुविधा का जीवन तलाशने वालों के टुच्चे कारनामे, निरीह लोग, अपमानित लोग और ऐसी ही दीगर बातों को देख मैं अपने में बहुत गंभीर और क्रोधी होता गया। मुझसे रहा नहीं जाता था और मैं नाराजी जाहिर करने लगा था। मुझे लगा, छोटेलाल सही कहता है।

मैंने उसी मनःस्थिति में छोटेलाल को एक लम्बा पत्र लिख अपने कस्बेनुमा शहर की हालत बयान की। मैंने लिखा कि छोटेलाल, मैं तुम्हारे साथ हूं। तुम बताओ, मुझे क्या करना चाहिए। कुछ दिनों बाद छोटेलाल का जवाब आया। लिखा था कि नगर के उच्च समाज ने उसे एक प्रबुद्ध के रूप में स्वीकार कर लिया है। बदले में वह भी उनके छोटे-मोटे काम कर देता है। उस पत्र में छोटेलाल ने मुझसे पूछा कि मेरी समस्या क्या है? यदि मैं प्रमोशन चाहता हूं या कोई बड़े नौकरी चाहता हूं, तो लिखूं। जोर डलवा कर वह मुझे दिलवा सकता है।

साफ था कि वह अब नाराज नहीं रह गया है। गलती शुरू से मुझसे ही हो रही है। हमेशा छोटेलाल ही सही कहता है। हमेशा जमाने को उसी ने ठीक भांपा। पहले भी मैं गलत था। आज भी मैं ही गलत हूं। मैं न तो प्रबुद्ध होने की उपयोगिता को और न उस उपयोगिता की उपयोगिता को, ठीक से समझ पाया और मैं छोटेलाल को भी ठीक नहीं समझ पाया। मुझे एकाएक यह कस्बाई जीवन निरर्थक लगने लगा। मैं सोच रहा था, क्या उसी दिन मुझे छोटेलाल के साथ चले जाना चाहिए था। 

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