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पढ़ें, शरद जोशी का एक मजेदार व्यंग्य: मुर्गाबोध की एक शाम

दीपाली अग्रवाल, टीम फिरकी, नई दिल्ली Updated Thu, 04 Jan 2018 04:53 PM IST
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विस्तार

यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था।  

"मैं संस्कृति को चारों ओर आसपास गचागच किस्म से महसूस कर रहा हूं । कल तक यह सिर्फ कमर तक थी, आज गले-गले है। मैं अन्य विषयों में गला फाड़ सीधे कहना चाहता हूं, जैसे विदेशी उधारी या कांग्रेस के टूटे शरीर के आत्मिक मिलन पर, मगर तुम देख रहे हो, मैं कल भी और आज भी पक्के गाने पर बात करता रहा । मैं तुमसे दोस्ती छोड़ दूंगा, मेरा दम घुट रहा है ।"

स्पष्ट था कि दादू के पास आज जेब में पैसे नहीं हैं, अन्यथा वह मेरे कमरे में घुस ऐसी निराशाएं नहीं बिखेरता । वह एक अच्छी-खासी शाम की ऐसी-तैसी करने पर तुला हुआ था । मैंने कहा, "जौहरी को फोन करते हैं । वह धन्धेबाज आदमी है, फिल्मों के अतिरिक्त वह कहीं रस-प्राप्ति के लिए व्यथित नहीं रहा । वह हमें इस पंक से उबारेगा ।"
जौहरी को फोन किया । नहीं मिला । हम उसे तलाशते न्यू कॉफी हाउस पहुंचे । वहीं बैठा था, जहां बैठा रहता है । उसने दादू को देखते ही सिगरेट का पैकेट छुपा लिया। उसके सामने छोटे कद का मगर बड़े बालों वाला आदमी बैठा था, जिसके चेहरे पर शहर के बाहर से आए व्यक्ति का सा भाव था । परिचय होने पर वह भी चित्रकार निकला । दादू को यह जानकर बहुत दुख हुआ कि इस शहर के बाहर भी चित्रकार रहते हैं और यदि वह शहर से आगे भी निकले, तो संस्कृति से बच नहीं सकता । 

जौहरी हमें उस चित्रकार की होने वाली प्रदर्शनी के पूर्व- दर्शन के लिए ले गया । खींचे जाने पर हम गए । संस्कृति और सभ्यता का संबंध प्राचीनकाल से रहा है । वर्तमान में यदि यह संबंध टूट गया तो उसमें हमारी हिस्सेदारी नहीं थी । हम गए ।

चित्रकार ने पहली पेंटिंग दिखाई । मुर्गा । चेहरे पर आत्मविश्वास, स्वाभिमान में उठी कलगी, कुछ कर गुजरने का संकल्प । दूसरा चित्र दिखाया । वह भी मुर्गा । क्रोध, मुंह खुला हुआ, मैनिफोस्टो उद्घोषित करता सा तेजोमय जनवादी व्यक्तित्व । तीसरा चित्र, मुर्गा, चेहरे पर शोधार्थी भाव, रहस्य खोजने की जिज्ञासा । चौथा, मुर्गा, चिन्तनग्रस्त, स्वयं को स्वयं की दृष्टि में स्थापित करने के लिए कोशिशमन्द । फिर मुर्गा । मधुर, सौम्य मगर किसी आदर्शवादी जिद में बंधा हुआ । इसी तरह के दो तीन और मुर्गे । सांघातिक रंग वैभव ।

"ये मेरे आरम्भिक चित्र हैं, जब मैंने महसूस किया कि मुर्गा एक माध्यम हो सकता है ।" चित्रकार ने बताया ।

"मुर्गा सदैव माध्यम रहा है । विरले हैं जो उसे लक्ष्य बनाते हैं ।" दादू ने कहा ।

"उसके बाद मैंने अपने नगर के चित्रकारों का संडे-ग्रुप बनाया जिसमें भिन्न कला माध्यमों, भिन्न युक्तियों पर मैंने और मित्रों से बहसें कीं । उसी काल के ये चित्र हैं ।"

मुर्गा अन्य मुर्गों के साथ । सभी गंभीर कुछ आकाश जोहते, कुछ भूमि । मुर्गे मुर्गों से लड़ते । कलगियां, पंख, फैले हुए, नुचे हुए । चेहरे पर आक्रोश, खिलाफत, समूह बना हवा में उछल जाने की एक खुफिया साजिश । ऐसे सात आठ चित्र थे । तेजी से आगे बढ़ते मुर्गे, लड़ते हुए और  लड़ाई के बाद थके हुए मुर्गे ।

"फिर मेरा एक लड़की से प्रेम हुआ औऱ विवाह ।" चित्रकार ने कहा और उसी के साथ कोमल हल्के रंगों का एक नया क्रम आरंभ हुआ ।

मुर्गी । मुर्गी की ओर टकटक देखता मुर्गा । सिर झुकाए बैठी मुर्गी, समीप फड़फड़ाता मुर्गा । अंडों पर बैठी निश्चल मुर्गी । भिन्न दिशाओं में देखते मुर्गा- मुर्गी । हर चित्र में मुर्गी । दादू के चेहरे पर पारिवारिक भाव आने लगे । मुझे लगा, घर जल्दी चला जाऊं । तभी चित्रों की धारा बदली । मुर्गा आसक्ति और विरक्ति के बीच दड़बे के पास टहलता हुआ नजर आया । मुर्गा दड़बे से दूर नजर आया । तभी एक चित्र में जो अपवाद था, एक लड़की छुरी हाथ में ले टेबुल पर मुर्गे की गरदन काटने की कोशिश करती नजर आई । 
" मैंने घर छोड़ दिया, प्रेमिका, पत्नी- सबको छोड़ दिया और मैं कला के लिए पूर्णत: समर्पित हो गया ।" चित्रकार बोला ।

मैंने और दादू ने महसूस किया कि आगे चित्रों में आए मुर्गे के व्यक्तित्व में बदलाव आ रहा है । उसकी गरदन लम्बी और अजब किस्म से दयनीय लगने लगी । उसकी टांगें पतली, फैली हुई और पंखों की संख्या में गिरावट आने लगी । सौम्य आदर्श से खीझ तक की इस लम्बी मुर्गा-यात्रा के अंतिम चित्रों में वह बिल्लियों से जूझता हुआ दिखाया गया था । ऐब्सट्रैक्ट होने लगा । अब बिल्ली की आंखें औऱ कलगी की मदद से वह कुछ कहने लगा । ऐसे कई चित्र थे ।

एकाएक हमें चारों ओर से कूकडूं कूं के स्वर सुनाई देने लगे । हमने महसूस कि यह आर्ट गैलरी नहीं, एक विराट मुर्गामय दड़बा है, जिसमें हम इधर उधर दौड़ते घिरे हुए हैं । हम भाग रहे थे और चारों ओर से बांग लगाते हुए वो हमारा पीछा कर रहे थे । 

"इतने मुर्गों के बाद बिल्लियों से मुझे रिलीफ महसूस होता है ।"मैंने कहा ।

"मेरा तनाव बढ़ता है।" चित्रकार बोला, "ये आलोचक हैं, जो मेरे पीछे लगे हुए हैं । मुझे खाना चाहते हैं । मगर अपने अस्तित्व की रक्षा करता मैं लड़ रहा हूं ।"

हम भागे । रास्ते भर हम जौहरी को गाली देते रहे ।

"मैं इसके कुछ मुर्गे बिकवा दूंगा।" जौहरी बोला 

"कौन खरीदेगा ?" मैंने पूछा ।

"इस शहर में मुर्गों की कमी नहीं, जिन्हें फंसाया जा सकता है ।" जौहरी के स्वर में इत्मीनान था ।

रात को लौटते हुए दादू कह रहा था, "कोई मुक्ति नहीं, संस्कृति से कोई मुक्ति नहीं । अपने लगाव और अलगाव में हम मुर्गे हैं । हम बचकर कहां जाएंगे? इस क्षेत्र के मुर्गे होने की नियति के अतिरिक्त संस्कृति से बचकर हम कहां जाएंगे ।" 

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