विस्तार
यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब ‘यथासम्भव’ से लिया गया। जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था। अपने लेख में व्यंग्य सम्राट ने नेताओं पर मजेदार लेख लिखा है। नई पीढ़ी को इसे जरूर पढ़ना चाहिए।
नेता शब्द दो अक्षरों से बना है। ‘ने’ और ‘ता’। इनमें एक भी अक्षर कम हो, तो कोई भी नेता नहीं बन सकता है। मगर हमारे शहर के एक नेता के साथ, अजीब ट्रेजडी हुई। वह बड़ी भाग-दौड़ में रहते थे। दिन गेस्टहाउस में गुजारते, रातें डाक बंगलों में। लंच अफसरों के साथ लेते, डिनर सेठों के साथ। इस बीच जो वक्त मिलता, उसमें भाषण देते। कार्यकर्ताओं को संबोधित करते। कभी-कभी खुद संबोधित हो जाते। मतलब यह है कि बड़े व्यस्त हैं। ‘ने’ और ‘ता’ दो अक्षरों से मिलकर से तो बने थे। एक दिन यह हुआ कि उनका ‘ता’ खो गया। सिर्फ ‘ने’ रह गया।
इतने बड़े नेता और ‘ता’ गायब। शुरू में तो उन्हें पता ही नहीं चला। बाद में सेक्रेटरी ने बताया कि सर आपका ‘ता’ नहीं मिल रहा। आप सिर्फ ‘ने’ से काम चला रहे हैं।
नेता बड़े परेशान। नेता का मतलब होता है, नेतृत्व करने की ताकत। ताकत चली गई, सिर्फ नेतृत्व रह गया। ‘ता’ के साथ ताकत गयी। तालियां खत्म हो गईं, जो ‘ता’ के कारण बजती थी। ताजगी नहीं रही। नेता बहुत चीखें। मेरे खिलाफ यह हरकत विरोधी दलों ने की है। इसमें विदेशी शक्तियों का हाथ है। यह मेरी छवि धूमिल करने का प्रयत्न है। पर जिसका ‘ता’ चला गया, उस नेता की सुनता कौन है? सी.आई.डी लगाई गयी। सीबीआई ने जांच की, रॉ की मदद ली गई। ‘ता’ नहीं मिला।
नेता ने एक सेठ जी से कहा, “यार, हमारा ‘ता’ गायब है। अपने ताले में से ‘ता’ हमें दे दो।’’
सेठ कुछ देर सोचता रहा। फिर बोला,“यह सच है कि ‘ले’ की जरूरत मुझे रहती है,क्योंकि ‘दे’ का तो काम नहीं पड़ता है लेकिन ताले का ‘ता’ चला जाएगा, तो लेकर रखेंगे कहां। सब इनकम टैक्स वाले ले जाएंगे। तू नेता रहे कि न रहे, मैं ताले का ‘ता’ तो तूझे नहीं दूंगा। ‘ता’ मेरे लिए बहुत जरूरी है। कभी तालाबन्दी करनी पड़ी तो। ऐसे वक्त तू तो मजदूरों का साथ देगा मुझे ‘ता’ थोड़े ही देगा।”
सेठ जी को नेता ने बहुत समझाया। जब तक नेता रहूंगा, मेरा ‘ता’ आपके ताले का समर्थन और रक्षा करेगा। आप ‘ता’ मुझे दे दें फि ‘ले’ आपका। लेते रहिए, मैं कुछ नहीं कहूंगा।
सेठ जी नहीं माने, नेता क्रोध से उठकर चले गये।
विरोधी मजाक बनाने लगे। अखबारों में खबर उछली कि कई दिनों से नेता का ‘ता’ नहीं रहा। अगर 'ने' भी चला गया, तो ये कहीं का नहीं रहेगा। खुद नेता के दल के लोगों ने दिल्ली जाकर शिकायत की। आपने एक ऐसा नेता हमारे सिर पर थोप रखा है। जिसके पास ‘ता’ नहीं है।
नेता दुखी था, पर उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह जनता में जाए और कबूल करें कि उसमें ‘ता’ नहीं है। यदि वह ऐसा करता, तो जनता शायद उसे अपना ‘ता’ दे देती। पर उसे डर था कि जनता के सामने उसकी पोल खुल गई तो क्या होगा?
एक दिन उसने अजीब काम किया, कमरा बंद कर जूते में से ‘ता’ निकाला और ‘ने’ से चिपकाकर फिर नेता बन गया। यद्यपि उसके व्यक्तित्व से दुर्गंध आ रही थी मगर वह खुश था कि चलों नेता तो हूं। केन्द्र ने भी उसका समर्थन किया। पार्टी ने भी कहा जो भी नेता है ठीक है। हम फिलहाल परिवर्तन के पक्ष में नहीं है।
समस्या सिर्फ यह रह गई कि लोगों को इस बात का पता चल गया कि आज स्थिति यह है कि लोग नेता को देखते हैं और अपना जूता हाथ में उठा लेते हैं। उन्हें डर है कि कहीं उनके जूते में से ‘ता’ न चुरा ले।
पत्रकार अक्सर प्रश्न पूछते हैं “सुना आपका ‘ता’ गायब हो गया था, पिछले दिनों?” वो धीरे से कहते हैं, “गायब नहीं हो गया था। वो बात यह थी कि माता जी को चाहिये था तो मैंने उन्हें दे दिया था। आप तो जानते हैं, मैं उन्हें कितना मानता हूं। आज मैं जो भी कुछ हूं, उनके ही कारण हूं। वे 'ता' क्या मेरा ‘ने’ भी ले लें, तो मैं इनकार नहीं करूंगा।”
ऐसे समय में नेता की नम्रता देखते ही बनती है। लेकिन मेरा विश्वास है मित्रों, जब भी संकट आएगा, नेता का ‘ता’ नहीं रहेगा, लोग निश्चित ही जूता हाथ में ले बढ़ेंगे और प्रजातंत्र की प्रगति में अपना योग देंगे।