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शादियों का सीजन चल रहा है। हर जगह शाम के वक्त बैंड-बाजा सुनाई देने लगा है। जगमग रोशनी और चमचमाते बाराती शाम के वक्त ऑटो-रिक्शा और टैक्सियों में भी नजर आने लगे हैं। शादी पर व्यंग्य सम्राट शरद जोशी ने 'एक दोस्त के विवाह पर' बहुत मजेदार व्यंग्य लिखा था। यहां हम उसके कुछ अंश 1985 में ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित की गई किताब यथासम्भव से पेश कर रहे हैं।
मनुष्य एक विवाहशील प्राणी है। जो जनमता है सो अपनी शादी बनाना मांगता है। अच्छे-अच्छे जहाज इस दरिया में डूबे हैं, विश्वामित्री मठ नष्ट हुए हैं। जो कमल की अदा से ऊपर उठे हुए थे, वे भी कालांतर में ‘सेटल डाउन’ का गौरव प्राप्त कर तलहटी में जा विराजे हैं। फिर क्या अचंभा कि मेरा दोस्त आज शादी कर रहा है। अभी-अभी डाक से मुझे उसकी बर्बादी के शहनाई पर्व का निमंत्रण मिला है और मैं बैठा सोच रहा हूं, मनुष्य विवाहशील प्राणी है।
कल तक वह साइकिल पर बैठा शहर चीर देता था। ठहाका लगता था तो मोहल्ले परस्पर कांपते थे, हर टिकट खरीद लेना उसके बाएं हाथ का खेल था, खाने से भरी प्लेटें उजाड़ कर देता था, कीमती कपड़े उसके बदन से लिपटने को तरसते थे। किसी का भी बिल आसानी से भर देता। उससे बड़ी-बड़ी उम्मीदें थीं। वह जहाज लेकर निकलता तो जरूर कोई देश खोजता और ऊपर उठता तो एस्ट्रोनॉट होता। पर उफ आज सारी संभावनाएं पिघल गईं। खिंची हुई तलवार म्यान में रिटायर हो गई। हद है कि मेरा यार शादी कर रहा है! अपनी मेनीफेस्टो रद्द करके यहां-वहां गुलाबी निमंत्रण भेज रहा है। इस कमबख्त को शर्म भी नहीं आती। वैसे शादी सदैव की नहीं जाती, हो जाती है। जैसे कि प्रेम किया नहीं जाता, कमबख्त हो जाता है।
मैंने अच्छे-अच्छे की शादी होते देखी है। जो बढ़-चढ़कर डींग हांकते थे, एक दिन विवाह मंडप के नीचे रंगे हाथों पकड़े गए। जिस दिशा में निकल जाइए, आदमी शादी करता दिख जाएगा। बाहर घोड़ा सज रहा है, अंदर गधा सज रहा है। प्राचीनकाल में ससुर लोग आश्रम के बाहर टोह में लगे रहते थे कि कोई बाहर आए तो फंदा डालें। आजकल ब्रह्मचारी वाराणसी से नहीं आता, रुड़की या देहरादून से आता है और रिजल्ट निकलते ही दबोच लिया जाता है।
तो क्या अचरज कि मेरे दोस्त ने शादी कर ली। यह निमंत्रण-पत्र एक-न-एक दिन कंपोज होना ही था। इसका तो प्रिंट ऑर्डर नियति ने दिया है। बेचारा इस बसंत में परीक्षा की तैयारी कर रहा था और आषाढ़ की बौछार तक उसके पढ़ने-लिखने का अंतिम उद्देश्य क्या है, यह पता लग गया।
मैं निमंत्रण-पत्र पढ़ रहा हूं और मेरे कानों में कहीं दूर से बाजे की आवाज सुनाई देती है और उसमें एक मंत्रोच्चार, एक घोड़े की हिनहिनाहट, लड़कियों की खी-खी-खी-खी, एक ससुर का शिकार करने के उपरांत राक्षस जैसा निर्मम ठहाका भी सुनाई देता है। औपचारिकता के इस नक्कारखाने में मेरे दोस्त के व्यक्तिगत दर्द (क्या पता दर्द है भी या नहीं) की तूती कौन सुनता है! उस कमबख्त को अभी क्या पता कि उसका क्या होने जा रहा है।