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शरद जोशी का मजेदार व्यंग्य: बंसीवाले का पुजारी

दीपाली अग्रवाल, टीम फिरकी, नई दिल्ली Updated Sat, 06 Jan 2018 04:35 PM IST
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sharad joshi satire on priest of Krishna
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विस्तार

भ्रष्टाचार एक ऐसी बीमारी है जिसने समाज को खोखला बना दिया है, बिना रिश्वत के कोई काम समय से हो जाना बेहद मुश्किल है। रिश्वत मांगने वाले क्या क्या बहाने बना कर रिश्वत मांगते हैं, इसी पर है शरद जोशी का ये व्यंग्य । 1985 में ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित, ‘यथासम्भव’ में उनका लेख ‘बंसीवाले का पुजारी ’ लिया गया है। 

 "जय बंसीवाले की।" कमरे के आकाश में उनकी वाणी गूंजी। मेरा नमस्ते इसी रूप में उत्तरित हुआ था।

"कैसे आना हुआ?" वे बोले।  काले घने बाल पीछे की ओर, ललाट पर तिलक, मलमल का महीन कुर्ता और धोती। आंखों में निरंतर टिमटिमाती एक मस्ती जो कृष्णभक्तों के चरित्र का अंग बन जाती है।  

"गुप्ताजी का पत्र आया था।"
"कौन ? अपने बाबू भैया ! जय हो। क्या हाल हैं उनके।"
"लिखा था आपसे मिल लूं। उनका काम हो नहीं रहा है। लिखा था, सब कुछ तिवारी जी के हाथ में है, बे चाहें एक दिन में कर दें।" मैंने कहा
 "अरे अरे, कैसी बात कही। करने वाला तो वह मोर मुकुट बंसीवाला है। तिवारी क्या करेगा? जैसा बंसीवाला करवाएंगे वैसा ही तो करेगा। बाबू भैया भी अजीब हैं|"
"लिखा था कि फाइल आपके पास ही रुकी पड़ी है। मैं आपसे मिलकर निवेदन करूं।"

"आपकी कृपा है। इसी बहाने सही अपने दर्शन तो दिए, नहीं जोशीजी, आपसे तो मुलाकात ही नहीं होती।"

मैंने क्षमा प्रार्थी चेहरा बनाया और मुस्कुरा दिया।

"आप तो बाबू भैया को लिख दीजिए कि वे सब-कुछ बंसीवाले पर छोड़ दें। उसके दरबार में सुनवाई हो गयी तो तिवारी क्या, दुनिया की बड़ी से बड़ी तोप उनकी फाइल नहीं रोक सकती। आदेश वही करेंगे। हम तो उनके सेवक हैं।"

मैं कुछ नहीं बोला। फिर उनके चेहरे पर एकाएक शिकायत का भाव आ गया। बोले "आप तो जोशी जी कभी घर पधारते नहीं"। अरे, हमारे लिए नहीं तो बंसीवाले के लिए ही घर आइए कभी।"

"जरुर, मैं अक्सर सोचता था कि आपके घर आकर चर्चा करना, फिर मैंने सोचा शायद आपको असुविधा हो।"

"अरे काहे की असुविधा। हमने तो अपना दिन-रात उस नटनागर को सौंप दिया। सुबह से उनकी ही सेवा में लग जाते हैं। आप आएंगे तो हम उनके ही चरणों में मिलेंगे।"
मगर उस दिन जब मैं तिवारीजी के घर गया तब वे बंसीवाले क चरणों में नहीं थे। वे खाना खाकर आरामकुर्सी पर लेटे अखबार पढ़ रहे थे। कहने लगे, "अभी ही पूजन से उठा हूं, प्रभु को नैवेद्य लगाया, खुद प्रसाद ग्रहण किया और बैठा ही हूं।"

मैं पास ही बैठ गया।

मैंने दफ्तर में तिवारी से हुई मुलाकात का हाल गुप्ता को लिख दिया था कि उसने मुझे घर बुलाया है। गुप्ता का पत्र आया था कि घर जाकर मिल लो। हो सकता है वह घर पर रूपया मांगे तो दे देना। उसने मुझे सौ रुपया टी.एम.ओ. से भिजवा दिया था।

"गुप्ताजी का काम हुआ?" मैंने पूछा

"बाबू भैया का, क्या हाल हैं उनके?"
"ठीक है। पत्र आया था। वही बात फिर से लिखी है।"

वे मुस्कुराये। मछली फंस जाने के बाद जैसी मुस्कुराहट किनारे पर बैठे शिकारी के चेहरे पर रहती है, वैसी ही संतोषपूर्ण मुस्कुराहट।

"सब होगा, सब होगा। बंसीवाले के चरणों में सबकी फाइलें पड़ी हैं। वह कृपालु जिस दिन उसे देख लेगा, समझना सारा काम फतह है। नाईक साहब प्रिंसिपल बन गये मुरारी कृष्ण की कृपा से। बड़ा चक्कर लगाया, मिनिस्टर तक से मिल आये, कुछ नहीं हुआ। मैंने कह दिया था कि वह मोर मुकुट वाला चाहेगा तो काम एक दिन में हो जाएगा। अरे राधेश्याम की कृपा से कितनों के काम हुए हैं। एक दिन नाईक साहब इस सेवक के घर आये। मैंने कहा, कहिए महाराज। बोले, बंसीवाले के दर्शन को आये हैं। मैंने कहा, अवश्य कीजिए। मंदिर के पट खोले, दर्शन कराया। कहने लगे, वाह कैसी दिव्य मूर्ती है। मानो गोपाल कृष्ण साक्षात् खड़े हों। सच है जयपुर से मूर्ती मंगाकर प्रतिष्ठित करवायी है। बड़ी सुन्दर है। नाईक साहब का मन रम गया। मूरत के चरणों में पूरा इक्कावन रूपया चढ़ाया और प्रसाद लिया। कहने लगे तिवारीजी जब भी आऊंगा बंसीवाले के दर्शन किये बगैर, भेंट चढ़ाकर प्रसाद लिए बगैर नहीं जाऊंगा। मैंने कहा, सारी माया उसी मथुरा वाले की है। वह चाहेगा तो आप प्रिंसिपल भी बन जाओगे। ताराशंकर बाबू के लड़के की नियुक्ति का चक्कर था। मेरे पास आये। मैंने कह दिया कि बंसीवाले की कृपा होगी तो सब काम हो जाएगा| तारा बाबू अपने बेटे को लेकर यहां आए, प्रभु के दर्शन किए, चरणों में एक सौ एक रूपया रखा, प्रसाद लिया और क्या बताऊं जोशी साहब, हालांकि फाइल मेरे पास चार माह से पड़ी थी पर उसी दिन कुछ ऐसी दिव्या प्रेरणा हुई, मानो उस मोरमुकुट वाले ने डांटा, क्या कर रहा है तिवारी, मेरे भक्त का काम नहीं होगा क्या? मैंने कहा, प्रभु तू कह रहा है और नहीं हो, यह साहस किसमें है। तारा बाबू के लड़के को नियुक्ति-पत्र उसी दिन मिल गया। तो ऐसा है जोशी साहब, सब कुछ उसी नंददुलारे यशोदानंदन के हाथ है। हमें तो बस उसका आदेश चाहिए|"

अगर दिव्या चक्षु नामक कोई चक्षु है तो वह मेरा तुरंत खुल गया।

"तिवारीजी! मैंने भावविह्वल स्वर में कहा, "कहां है बंसीवाले का मंदिर, मैं दर्शन करना चाहता हूं|"

"अपने ही घर में है।"

"तो दर्शन कराओ।"

"चलिए"

तिवारीजी मुझे बायीं ओर के कक्ष में ले गये, जिसका एक दरवाजा जनता की सुविधार्थ सड़क की तरफ खुलता था। पूरा कमरा एक छोटे से मंदिर में बदल दिया गया था।समने ऊपर दो हाथ लम्बी संगमरमर की कृष्णा की मूर्ती थी, हाथ में बंसी लिये। अगरबत्ती की गंध से कमरा सुवासित हो रहा था, रूपए की सौ वाली अगरबत्ती से। मूर्ती के गले में एक पंद्रह पैसे वाली फूलों की माला पड़ी थी। सिंहासन पर सवा रूपए गज का लाल मगजी कपडा बिछा था। नीचे आसन पड़े थे।

"जय मोर मुकुट बंसीवाले की।" तिवारी जी यह कहते हुए मूर्ती के सामने साष्टांग झुक गए। मैं भी झुका। झुके-झुके ही मैंने पैंट के हिप पॉकेट से गुप्ता का भेजा सौ रुपया निकाला और मूर्ती के सामने रख दिया| तिवारी जी ने कनखी से रुपयों की ओर देखा, मन-ही-मन अंदाज लगाया, कितने होंगे और पूरी भक्ति भावना और ललक से फिर दुहराया, "जय मोर मुकुट बंसीवाले की।"

फिर वे उठे और उन्होंने मुझे प्रसाद दिया|

"आप ही पुजारी हैं इस मंदिर के?"

"पुजारी कहिए, सेवक कहिए, जो कुछ हैं इस श्याम सलोने के हैं।" वे हाथ जोड़कर बोले 

मैं पुनः झुका। वे भी उतना ही झुके। कुछ ही देर बाद मैं मंदिर के बाहर अथवा कहिए, तिवारी जी के घर के बाहर आ गया था। वे गदगद भाव से इस जाते हुए भक्त को देख रहे थे।  अगले ही दिन गुप्ता का काम तिवारीजी ने कर दिया। जय मोर मुकुट बंसीवाले की। 
   

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