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नेताओं के भाषणों की पोल खोलता है शरद जोशी का यह व्यंग्य

टीम फिरकी, नई दिल्ली Updated Wed, 14 Feb 2018 11:50 AM IST
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Sharad Joshi
Sharad Joshi
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विस्तार

कुछ विषय हैं जिन पर आसानी से बोला जा सकता है, जैसे हमारी शिक्षा-प्रणाली पर या भारतीय संस्कृति पर। शहरों में बोलनेवाले होते हैं, जो आकर बोल जाते हैं। जैसे बैंडवालों से कहो कि आकर बैंड बजा जाना तो वे लोग आकर बजा जाते हैं, बशर्ते उन्हें उसी समय कहीं और जाकर न बजाना हो। पर देश में अधिकतर भाषण मरे हुए महापुरुषों पर होते हैं। अक्सर कोई मरा करता है या ऐसा दिन आया करता है जब किसी मरे की याद की जाए।

भारतीय लोग मुर्दा जलाने की कला में सिद्ध होते हैं। वे भाषण दे-देकर मुर्दे को खड़ा कर देते हैं और वह श्रोताओं के सिर पर मंडराने लगता है। यादों में नहाकर इस देश के श्रोता जब घर लौटते हैं तब ज्ञान से तरबतर होते हैं। अपनी भावुकता में खुद जुगाली करने से बढ़कर तृप्ति का बोध और कुछ नहीं। 

याद करने लायक महापुरुष काफी सारे पड़े हैं। राम, कृष्ण, हनुमान, गणेश के जमाने से आगे बढ़ो, तो बुद्ध, महावीर पर अटको, कालिदास को याद करने का सालाना रिवाज है। तुलसी, सूर दो दिन खा लेते हैं। इतिहास में कूदो, तो शिवाजी, प्रताप से लेकर अठारह सौ सत्तावन के आसपास बड़ी संख्या है। 

लक्ष्मीबाई, तांत्याटोपे पर सभा नहीं हुई, तो यह नुगरापन किसी को बर्दाश्त नहीं होगा। फिर अरविंद, रामकृष्ण, दयानंद, विवेकानंद और नानक, कबीर, रैदास के श्रोताओं की सुनिश्चित भीड़ होती है। उसके बाद कांग्रेसी महापुरुष यानि गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष, शास्त्री आदि। 

साहित्यिकों की सभा के लिए रवींद्र, भारतेंदु, प्रेमचंद, गालिब वगैरह। (मुझे वे अनेक मृत आत्माएं क्षमा करें जिनका नाम मैं स्मृति की कमजोरी और स्थानाभाव से नहीं ले पा रहा।)

इसके अलावा कई शोक-सभाएं होती हैं। वे लोग जो नियमित रूप से महापुरुषों पर बोलने के लिए निमंत्रित किए जाते हैं, बड़े परेशान रहते हैं। कभी सावरकर, आंबेडकर पर सोचते हैं, तो कभी केनेडी या गोर्की पर। 
वक्ता की लाचारी यह है कि किस-किस को याद रखे। इतने ताल-तलैया हैं, वह कहां-कहां डूबे ? किस-किस की गहराई पर बयान दे। वक्ता के इस संकट को मैंने इधर गंभीरता से अनुभव किया है। मैंने कल्पना में खुद को वक्ता के स्थान पर रूपायित किया (धृष्टता के लिए क्षमा करें) और सोचा कि यदि मुझे अमुक पर बोलने के लिए कहा जाए, तो मैं क्या करूंगा। मैं खुद अपना परीक्षक बना और उत्तर स्वरूप भाषण देने में लड़खड़ा गया। मैं कुछ देर कालिदास पर बोला, फिर नहीं बना तो तात्याटोपे पर बोलने लगा। पर वहां से भी घबराकर चेखव पर आ गया। 

मुझे लगा कि बेटे मन ही मन बोल रहे हो, नहीं तो अभी तक हूट हो जाते। मैंने अपमानित अनुभव किया। मेरी बड़ी इच्छा है कि यदा-कदा भाषण और तालियो की फसल काटूं। पर इस तरह तो मैं कुछ नहीं कर सकूंगा। सारे महापुरुषों के जीवन और विचारों का अध्ययन कितना कठिन है। इससे तो सरल है कि किसी विषय पर पी.एच.डी. कर ली जाए। 

मैं मानता हूं कि आत्मविश्वास न खोया जाए, तो किसी भी विषय पर बोला जा सकता है। एक फॉर्मूला निश्चित बन सकता है, जिसमें सारे महापुरुषों की चर्चा की जा सके। एक ऐसी चौखट, जिसमें सारी तस्वीरें फिट हों। यों कि आप भाषण देने खड़ें हों, ऐसे कि मानो आप पर बहुत-कुछ लदा है। हाथी-चाल से धीरे-धीरे मंच तक पहुंचें। 

एक क्षण के लिए उस महापुरुष की हार से टंकी तस्वीर की ओर देखें और फिर उपस्थित श्रोताओं की ओर, फिर अध्यक्ष को कनखी से देख धीरे से कहें, अध्यक्ष महोदय, बहनो और भाइयो! एक क्षण चुप रहें। थूक निगलें। हाथ पीठ पर बांधें, झुक कर अपने पैर के अंगूठे की ओर देखें और कहें कि आज हम सब एक ऐसे महापुरुष का जन्मदिन (या जो भी दिन हो) मनाने के लिए एकत्र हुए हैं,  जो आज हमारे बीच नहीं हैं। (जाहिर है तभी यह सभा है, नहीं तो काहे को होती!) आपमें से बहुत व्यक्तियों ने इस स्वर्गीय आत्मा (हम उसे 'ड' कहेंगे) 'ड' के जीवन के विषय में पढ़ा है, जाना है, समझा है और उससे प्रेरणा (या रस जैसा भी हो) ग्रहण किया है। हमारे देश में अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गांधी, टैगोर आदि और उनके विचारों से देश का मार्गदर्शन मिला है। पर स्वर्गीय 'ड' इन सबसे बिल्कुल अलग नजर आते हैं। मैं कहना चाहूंगा कि 'ड' हमारे इतिहास के एक ऐसे जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं, जिसकी चमक कभी कम नहीं होगी। (यहां आप जब तक चांद-सूरज कायम हैं, गंगा में जल है और भारत भारत है, तब तक वाली बात कहने की जल्दबाजी नहीं करें, क्योंकि भाषण अभी आरंभ ही हुआ है।) 
यों तो श्री 'ड' के विषय में अनेक बातें कही जा सकती हैं, खासकर उनके जीवन और विचारों को लेकर, पर मैं इस सब में विस्तार से नहीं जाकर, क्योंकि मेरे बाद भी वक्ता हैं, जो श्री 'ड' के जीवन पर प्रकाश डालेंगे, सिर्फ इतना कहूंगा कि 'ड' का हमारे देश और समाज के जीवन में क्या स्थान है और क्या बात है कि इतने वर्षों बाद भी 'ड' हमारे लिए नये हैं, ताजा हैं और उनके विचार आज भी हमारे जीवन और समाज की समस्याओं के लिए नई दृष्टि देते हैं (अगर 'ड' कवि वगैरह हों, तो हम उनके साहित्य के शाश्वत होने की बात कह सकते हैं।) 

हमें 'ड' के विचारों को समझने से पूर्व उन परिस्थितियों को समझना पड़ेगा, जो हमारे देश में उस समय थीं जब 'ड' ने जन्म लिया, और उस जीवन को समझना पड़ेगा जो 'ड' ने बिताया। ( अब हर महापुरुष के समय देश एक विशेष परिस्थिति से पुनः गुजर रहा होता है और महापुरुष किसी न किसही प्रकार का जीवन बिताता ही है) उस समय हमारा देश एक ऐसे दौर से गुजर रहा था, जब सब कुछ अस्पष्ट था, सर्वत्र अंधकार छाया हुआ था, एक विचित्र परिस्थिति थी, लोगों को समझ नहीं आता था कि क्या करें ?। (लोगों को समझ में आता कब है ?। एक ऐसे वक्त पर हमारे 'ड' आये और उनके विचारों ने देश को चौंका दिया। 

'ड' एक साधारण परिवार के थे। उस समय, आप जानते हैं देश में शिक्षा की सुविधा नहीं थी। अध्ययन करसने के उत्सुक व्यक्तियों को कितना भटकना पड़ता था। 'ड' ने वह सब किया और ग्रंथों का अध्ययन कर उन्होंने समझा कि आखिर बात क्या है, हमारा रास्ता कहां है! अध्ययन की ओर उनकी रूचि बचपन से ही थी, और कहते हैं ना कि पूत के लक्षण पालने में दिखाई देते हैं, उस तरह छोटी-सी आयु से ही उनकी प्रतिभा ने सबको प्रभावित करना आरंभ कर दिया था। आगे चलकर जो कुछ उन्होंने दिया, वह आज हमारे सामने ही है। मैं सिर्फ यही कहना चाहता हूं कि 'ड' का जन्म हमारे इतिहास के एक ऐसे काल में हुआ, जब देश को उनकी सख्त आवश्यकता थी। 

(यह बात सबके बारे में बखूबी कही जा सकती है, क्योंकि इससे कैसे इनकार किया जा सकता है कि तुलसीदास के वक्त हमें तुलसीदास चाहिए था और रानी लक्ष्मीबाई के जमाने में लक्ष्मीबाई की बहुत जरूरत थी।)  पर 'ड' सिर्फ उसी काल के नहीं थे। अपने वक्त से काफी आगे रहे और हम देखते हैं कि आज वर्षों बाद भी उनकी बातें, उनके विचार उतने ही सत्य और सार्थक हैं, जितने तब थे। (हुआ कुछ नहीं, सो हमारी बात है)  वे कसौटी पर खरे उतरते हैं और हम आज भी अपनी समस्याओं के निदान के लिए उसमें राह खोज सकते हैं।
मैं 'ड' को अटूट साहस, ज्ञान, प्रतिभा और अनुभव के ऐसे पुंज के रूप में देखता हूं, जो अपनी जगह बहुत ताकत रखता है। इसी कारण मैं व्यक्तिगत रूप से 'ड' के प्रति विशेष श्रद्धा रखता हूं। और जब मैंने 'ड' का अध्ययन किया (या उनके संपर्क में आया, अगर उनको मरे ज्यादा वर्ष न हुए हों) तब मैंने निश्चित ही उन्हें एक ऐसी अगाध धारा के रूप में पाया, जिसे समझना मुझ जैसे अकिंचन के वश की बात नहीं है। (यहां आप नम्रता से हाथ जोड़ लें, चाहे।) 'ड' एक नेता से बढ़कर (या कवि या वैज्ञानिक से बढ़कर, कम्बख्त जो भी हो) एक इंसान था, एक ऐसा इंसान, जो सबका है और सबके लिए है।

वह उस प्रदेश का (या उस भाषा का) ही नहीं है, जहां वह जन्मा और पला-बढ़ा, वह हम सबका है। वह आपका भी है, हमारा भी है, वह सबका है, सारे देश का है और मैं कहूंगा कि वह सारी मानवता का है । (जैसे आप चेखव पर बोल रहे हैं, तो आप कह सकते हैं कि चेखव सिर्फ रूस का ही नहीं है, भारत का भी है, सारी दुनिया का है या आप रवींद्र के बारे में कह सकते हैं कि वे सिर्फ बांग्ला के ही नहीं हैं।) 

अब आप क्षणभर के लिए चुप हो जाइए। हॉल की छत की ओर देखिए। तब कहिए कि मैं यह हमेशा मानता रहा हूं कि 'ड' के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यह नहीं है कि हम वर्ष में एक बार कहीं एकत्र हो जाएं और उस पर भाषण दे लें, सुन लें और घर चले जाएं, बल्कि 'ड' के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यह है कि हम उसके विचारों का मनन करें, उन्हें जीवन में उतारें और उसके आदर्शों को मूर्त रूप प्रदान करें। 

मैं आपका अधिक समय नहीं लूंगा, क्योंकि मेरे बाद भी अनेक वक्ता बोलने वाले हैं, पर अंत में मैं इतना अवश्य कहूंगा कि आज हम जो भी हैं, पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से देश का जो भी रूप बन रहा है, पर आज नहीं तो कल देश को जरूर 'ड' के विचारों की ओर लौटना पड़ेगा। क्योंकि 'ड' का मार्ग ही एक ऐसा मार्ग है, जिसमें यह देश (या साहित्य) उन्नति कर सकता है और हम संसार के सामने सिर उठा सकते हैं।

यह निश्चित ही बड़े गर्व की बात है कि हमारे देश में 'ड' जैसे अनमोल रत्न ने जन्म लिया, जिसने देश को ऊंचा उठाया, उसका सम्मान बढ़ाया और आज उसके बताये मार्ग पर चलकर हम इस अवस्था तक आ पहुंचे हैं। (हाय, क्या अवस्था है)  हमें इस देश के महान रत्न की चमक कम नहीं करनी है, उसके संदेश को घर-घर पहुंचाना है और स्वयं अपने जीवन को सफल बनाना है। मैं सोचता हूं कि अगर हम ऐसा कर सके, तो यह 'ड' के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजिल होगी। इतना कहकर मं अपना स्थान ग्रहण करता हूं। 

यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था।
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