विस्तार
यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है।जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था।
उधार लेना एक कला है और उसे नहीं लौटाना उससे भी बड़ी कला है। इनमें परस्पर बी.ए.- एम ए. का सम्बन्ध है जो बी.ए. करता है फिर एम. ए. कर ही लेता है। जो उधार लेता है वह धीरे धीरे उसे नहीं लौटाना भी सीख जाता है।एक साधना है, जो सिद्ध हुआ, उसका जीवन सफल है। सतत प्रयास, सूझबूझ, धैर्य, मधुर भाषण और अध्यवसाय से आदमी उधार लेने और न लौटाने में कुशल हो जाता है। सभ्यता का विकास परस्पर उधार की कहानी है। पशु एक दुसरे से उधार नहीं लेते।
उधार के मूल में एक गहरा दर्शन है। क्या है, मैं नहीं कह सकता। पर है। जो गुण हमारे निजी और राष्ट्रीय जीवन की विशेषता हो गयी है, उसके मूल में जरुर कोई दर्शन होगा। उधार लेना ही मनुष्य की आशावादिता का प्रमाण है। जो जीवन से निराश है वह तो आत्महत्या करेगा, पर जो आस्था रखता है वह उधार लेगा। यह समाज, यह सारा जीवन उधार पर टिका हुआ है। मानव जाति दो भागों में बँटी है, वे जो उधार देते हैं और वे जो उधार लेते हैं। मनुष्य और मनुष्य के बीच सारी बड़ी छोटी खाइंयॉं उधार के छोटे-मोटे पुलों से बंधी हैं। जब ये पुल टूट जाएँगे, आदमी अकेला हो जाएगा। उधार लेने की शक्ति ही मूल जीवन-शक्ति है, जो उधार लेने में थक चुके हैं, मैदान छोड़ गयें हैं वे जीवन की व्यर्थता भा समझ गये हैं। कुछ सिर्फ इस भ्रम में जी रहे हैं कि वे उधार वसूल कर लेंगे और कुछ तय किये हुए हैं कि मरते दम तक नहीं देंगे। उनका जीवन सफल है।
पर पुरानी पीढ़ी नयी पीढी के नाम कुछ कर्ज छोड़ गयी है और हर नयी पीढ़ी ने पुरानी पीढ़ी का कर्ज चुकाने से साफ इनकार कर दिया है। मूल्य बदल गये हैं, अत: भाड़ में जाओ। कौन देता है ? गालिब जो उधार की पी गये, वह क्या बाद के शायरों ने चुकाई होगी ? बिल्कुल नहीं। उधार नहीं लौटाना परम्परा से विद्रोह है। परम्परा है उधार देना। विद्रोह की भी चूँकि एक परम्परा चली आयी है, अत: हाथ फैलाने, मुट्ठी बांधने और अगूंठा दिखाने का यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। हम सिर से पैर तक कर्ज में डूबे रहते हैं। पर क्या मछली को आप पानी में डूबी कह सकते हैं ? वही तो उसका जीवन है। हमें कर्ज के इस पानी से निकालो तो हम तड़पने लगेंगे। हम फिर पानी में कूदेंगे यानी कर्ज ले लेंगे।
कोई भी उधार कुछ विशेष संदर्भ में उधार रहता है। नये परिप्रेक्ष्य में वह उधार नहीं रहता। उधार लेने वाले ही जीवन में कुछ कर सके हैं, इतिहास में उनका ही नाम प्रसिद्ध है। उधार लौटाने वाले परिहास के पात्र हैं, वे जीवन में कुछ नहीं कर पाते, क्योंकि वे धारा के विरुद्ध तैरने का प्रयास करते हैं। उधार ही वह धारा है जो सतत आ रही है और हमारे सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक जीवन के खेत उससे लहलहा रहे हैं। यह जीवनधारा है। इस देश में उधार के लिए सबसे अच्छी परिस्थितियाँ हैं। क्योंकि यहाँ पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर विश्वास है। आदमी जानता है कि अगर इस जन्म में नहीं चुका सके तो अगले जन्म में चुका देंगे। ऐसी क्रेडिट फेसिलिटी किस धर्म में मिली होगी? आत्मा स्थायी पूंजी है जो अमर है। इसकी साख पर हम कोई भी सौदा कर सकते हैं। शरीर एक बटुआ है जो सिक्के लेता देता रहता है। महत्व बटुए का नहीं उस लेन देन की प्रथा का है। प्रथा बनी रही तो बटुए तो नये आते रहेंगे।
कुछ लोग कर्ज का भार मानते हैं। वे खुद को धोखा देते हैं। वे यह बताना चाहते हैं कि वे शरीफ हैं क्योंकि वे कर्ज का भार मानते हैं। अपनी शराफत का प्रदर्शन कर वे और उधार लेना चाहते हैं। आदमी लाइटवेट चैंपियन से ही हैवीवेट चैम्पियन बनता है। आज जिसने सौ रुपया कर्जा लिया है वहीं कल 1000 रुपये उधार लेगा। कर्ज आदमी को उत्साहित करता है। वह भार नहीं है, वह तो गैस का बड़ा गुब्बारा है, जो हमें भूमि से आकाश की सैर कराता है। गुब्बारा कितना भी बड़ा हो, भार नहीं होता।
उधार लेने वाला अन्वेषी होता है और अन्वेषी ही उधार ले सकता है। हमारे देश के वित्त मंत्रालय को कोलम्बस की प्रतिभा लगानी चाहिए। वह अमरीका नहीं खोजा हम कहां से कर्ज लेते! यो भी कर्ज में दबा आदमी नयी गलियां, नयी सड़के खोजता है। उन नये मार्गों से वह नये उधार प्राप्त करता है। यही विकास है। हम भी नयी राह खोजेंगे, क्योंकि पुरानी राहों से गुजर मुश्किल है। इसे नीति का परिवर्तन कहिए या समय की मांग। विस्फारित दृष्टि हम संसार की ओर देख रहे हैं। और हमें संभावनाओं से परिपूर्ण देश और द्वीप नजर आते हैं। उधार की सीमा आकाश है, चांद है, तारे हैं, हमें मिलेगा, मिलता रहेगा। देखो वह चांद की ओर एक राकेट चला। कोई इसमें हमारे वित्तमन्त्री को बिठा दे। वे कुछ लेकर आएंगे, ओह, यह सृष्टि कितनी सुखमय है, यह आकाश कितना असीम फैला है और फिलहाल हमें थोड़ा-सा बहुत ही थोड़ा सा कर्ज चाहिए।