विस्तार
यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था।
कई बार लगता है, इस असार संसार में हमारा जन्म केवल सामान खरीदने के लिए हुआ है। हम मनुष्य हैं और मनुष्य के रूप में ग्राहक बने रहने के लिए अभिशप्त हैं। जब से होश संभाला, हम निरंतर कुछ खरीद रहे हैं और लगता है खरीदते-खरीदते ही हमारे होश फाख्ता नामक पक्षी की तरह उड़ जाएंगे और लौटकर नहीं आएंगे। तब एक कफन खरीदा जाएगा और हमें ढंक दिया जाएगा। वह कफन सादा, सफेद होगा। उस पर न कोई डिजाइन होगी, न बेलबूटा। फूल-पत्तों, चांद-तारों, तितली-चिड़िया और वह सजी हुई करवाचौथ न होगी। उस दिन इस कमबख्त कला से छुटकारा मिलेगा! कोई न कहेगा कि हाय यह कैसा रद्दी कफन उठा लाए- न बॉर्डर है, न झालर लगी हुई है, सफेद रंग की इस 'मोनोटोनी' को भंग करने के लिए बीच में रंगीन चकत्ते भी नहीं हैं। तब कोई न कहेगा। तब इस कला से मुक्ति मिलेगी जो लगातार अपना जादू दिखाती है और हमें लगातार ग्राहक बने रहने के लिए मजबूर करती है।
भला हो बनाने वालों का। कला कहां नहीं है! हर सड़े माल पर एक हसीन लेबल लगा है। बेकार फिल्मों के पोस्टर लुभावने होते हैं, आलसी संस्थाएं अपने सुन्दर भवनों के कारण विख्यात हैं और बोर शख्स के ड्राइंगरूम हमें बांधे रखते हैं। सपाट और कच्ची दीवारों पर सुन्दर पेंटिंग टंगे रहते हैं। जिस शब्दों और उबानेवाली बड़बड़ाहटों को यों कोई नहीं सुनता, वे ही जब गीत की धुन और पृष्ठ-संगीत की गाजा-बाजा गूंज के साथ सुनाई देने लगती हैं, तब लोकप्रियता की 'बिनाका' ऊंचाईयों पर चढ़ जाती है। यही कल्चर है, कला है जिसमें यारों का गला अजीब तरह फंसा हुआ है। बचकर कहां जाइएगा! लोग कपड़ा नहीं उसका रंग देखते हैं, उसकी काट और उसका कसाव देखते हैं। खोपड़ी नहीं, बालों की सजावट देखते हैं। आपने देखा होगा कि वे जो ऊंचे से जूड़े बंधे रहते हैं, जिनकी शख्सियत सिर पर अलग नजर आती है, वे उच्च कला के घोंसले हैं। उस जूड़े से लेकर एड़ी के महावर तक कला डूबती-उतराती है, पागल बनाती है। उस दिन की बात है। वे दुकान में घुसकर चूड़ियां खरीद रही थीं और मैं बाहर खड़ा था। मुझे लगा मानो मैं खड़े-खड़े ही अपनी जिंदगी गुजार दूंगा और वे बाहर नहीं आएंगी। ठीक रंग की चूड़ियों की तलाश नारी-जीवन की एक महत्वपूर्ण तलाश है। जारी रहती है, चलती रहती है। कला ने जीवन में कहां-कहां सुराख बनाये हैं! इतने झरोखों के बावजूद जिंदगी का यह हवा-महल खड़ा रहता है, ताज्जुब है! यह ढह क्यों नहीं जाता?
बात मैटर में नहीं, उसके हाशिये में है। प्रेम-पत्र लिखे जाते हैं, आस-पास जगह छोड़ी जाती है ताकि अक्षर खिलें, उभरें और पढ़े जा सकें। मगर क्या मन मानता है? लगता है हाशिया भी रंग दें, जहां जगह बची हो वहां भी अपनी बात कह दें। मगर कला का ख्याल आता है। कलम घिचपिच करने से रुक जाती है। प्रेम-पत्र की छोड़िए, हमारा एक कर्जदार है, उसकी बात कहता हूं। हमें उसका उधार चुकाना है। मेरा भाई क्या सुन्दर खत लिखता है कि कई बार पेमेंट करने को दिल करने लगता है! कला का सम्मान करना हमारी परम्परा है। अरे हम न चुकाएंगे तो कौन चुकाएगा? सारी जिंदगी कला के लिए ही चुकाते बीती है। परसाल परदे लाये थे। आह, क्या परदे थे! उन्हें दरवाजों पर टंगे जो देखता लटककर रह जाता। अन्दर-ही-अन्दर उसका कलाबोध करेंट मारता कि पूछे बिना नहीं रहता- जोशी, कहां से खरीदे? क्या परदे थे! दो धुलाई में साफ हो गए। मर गये मगर नाम कर गए। उनके अंतिम दिन भी देखने लायक थे। पीले में नीला मिल हरा हो गया था। अपनी खरी कमाई को यों उजड़ते देखा तो तबियत झक्क हो गयी। मगर भाइयों, सवाल कला का था, रुचि का था।
आदमी की रुचियां उदार हो रही हैं। वह किस चीज को कला के रूप में अपना ले, कहना कठिन है। उपेक्षित सूखी डालियां ड्राइंगरूम में डेकोरेशन-पीस बन जाती हैं, गंवारों की लुंगी आधुनिकता का प्रतीक बन गयी, गले खुल गए, कमर खुल गयी और साड़ियां विचित्र नाभिदर्शना शैली से बांधी जाने लगीं। मैं तो आजकल उन बड़े-बड़े चश्मों पर मोहित हो रहा हूं। आदमी की दृष्टि संकीर्ण होती जा रही है मगर उसका चश्मा बड़ा होता जा रहा है, यही क्या कम है!
मुझे किसी ने बताया कि इस सबका एक शास्त्र है। और कुछ शास्त्री हैं जो दिन-रात लगे रहते हैं और नित नये परिच्छेद रचे जाते हैं। वे साधना में लीन हैं, तपस्या-रत हैं। उनकी दिव्य दृष्टि में नजर आता है कि पुरुष और स्त्रियों को आने वाले कौन-सा कपड़ा पहनना है। वे कहते हैं कि कमर का बेल्ट चौड़ा होगा और देखिए कि हुआ जाता है। शरीफ आदमी अजब काऊबॉय के अंदाज में नजर आने लगता है। कहीं का रिवाज कहीं की कला बन जाती है, बहुतों का भला हो जाता है, धंधा चल निकलता है। कला निरंतर जिंदगी को यहां-वहां से कुरेदती है।
मैं इस दौड़ में नहीं। मैं जो पैंट पहनता हूं, वह काऊबॉय की तरह नहीं है, हालांकि इतना पुराना भी नहीं कि उसकी पायंचे चौड़े हों। फिर भी परेशान हूं। मुझे तो अपने कैक्टसों का अफसोस है। सुना है कि आजकल कैक्टसों की सजावट का रिवाज नहीं रहा। मैंने काफी सारे इकट्ठे कर लिए थे और मैं उन्हें चाहने भी लगा था। कैक्टस नयी कला और आधुनिकता का प्रतीक-सा बन गया था। मगर अब वे सारे कैक्टस घर के पीछे आंगन के एक कोने में उपेक्षित-से पड़े हैं और बेतरतीब बढ़ रहे हैं। मैं उन्हें फेंक नहीं पा रहा हूं। यदि उनका फैशन लौटकर आए तो मुझे सूचित करें ताकि उन्हें फिर से सजाकर ड्राइंगरूम में रख दूं।