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क्या इस तकनीकी युग में 'कविता' जिंदा है?

Shweta pandey@firkee Updated Tue, 21 Mar 2017 03:32 PM IST
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world poetry day
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विस्तार

जो महसूस किया अपने आस पास उसे अपने शब्दों में व्यक्त करने का एक ऐसा प्रयास जो सहज हो, ईमानदार हो, बिना किसी बनावट के व्यक्त हो, मानों कोई नदी। जो उद्दाम,अविरल,अबाध गति से उमड़ती चली जाती है। उसे ही 'कविता' का नाम दिया गया है। अतीत को खंगालने से पता चलता है कि लेखन की प्रक्रिया किसी न किसी रूप में सदियों से चली आ रही है। चाहे डाक तार का माध्यम हो या आज का सोशल माडिया। 

आज 21 मार्च यानि 'वर्ल्ड पोएट्री डे' है। अब आज 'कविता' को थोड़ा याद करना तो बनता ही है। अतीत काल से आधुनिक काल तक कई ऐसे कवि हुए हैं जिन्होंने 'कविता' को शीर्ष तक पहुंचाया है। चाहे आधुनिक काल के 'कुमार विश्वास' हों या अतीत के 'जयशंकर प्रसाद'..  

अब सवाल ये है कि क्या अतीत काल की 'कविता' आज भी लोगों में जिंदा है या कहीं विलीन हो चुकी है?  पूराने समय की कविताओं में गेयता, पठनीयता, सुरुचिता, तारतम्यता, संगीतमयता थी, क्या आज की कविताएं इन शब्दों को ध्यान में रख कर की जाती हैं? तथाकथित आज का दौर अब बदल चुका है, जहां कविताएं अब नया रूप ले चुकी है। कविताओं में भी राजनीतिक मुद्दे,धर्मनिरपेक्षता, असहिष्णुता की बात की जाती है। जबकि पहले कविताओं में ये मुद्दे नहीं होते थे। 

अब तकनीकी का दौर है, कविता की रेसिपी भी गुगल पर सर्च की जाती है। हम कह सकते हैं कि वर्तमान की कविताएं अतीत से बेहद अलग हैं। जिसमें नफरत अधिक, सामंजस्य कम, अध्ययन थोड़ा, लिखना ज्यादा, सुनना अधिक, गुनना कम, खंडन अधिक, मंडन कम जैसा स्वर ही अधिक दिखता है। यानी जिस तरह राजनीतिक क्षेत्र में हमारा देश आज ‘भयानक विचार शून्यता’ के दौर से गुजर रहा है, ठीक उसी तरह हमारी कविता भी संक्रमण के दौर से गुजर रही है। 

'कविता' लोगों के अंदर मृत बनकर जिंदा है। ये भी कहा जा सकता है कि लोग अब ऐसी ही कविता सुनना और बुनना पसंद करते हैं। पूरानी कविताओं की भाषा शैली ही बदल चुकी है जो एक नया रूप से चुकी है। पहले की कुछ कविताएं बिलकुल साफ होती थी जिन्हें कोई भी पढ़े तो झट से समझ ले। जैसे सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता “झांसी की रानी” या श्याम नारायण पांडेय की कविता “हल्दीघाटी”। इन कवितााओं के विषय ऐसे थे कि आप कविता के साथ साथ कवि को भी समझ लें।  

ख़ैर... कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है। कविता सृष्टि-सौन्दर्य का अनुभव कराती है। कविता को जीना एक शांति का अनुभव देता है। अकेलेपन में खुद से बात करने का माध्यम 'कविता' ही है। अगर आज के दिन भी लोगों में थोड़ी सजीवता बची है तो 'कविता' को याद ज़रूर करना चाहिए। 


आजकल फेसबुक, ट्विटर और सोशल मीडिया ने कविता का पतन कर दिया है। हां, और ये बात बिलकुल सही है। लोग कविता के नाम पर फेसबुक पर कुछ भी लिख देते हैं, जिनमें न कोई रस रहता है न ही कुछ मतलब। सोशल मीडिया एक दूसरे जूड़़े रहने का एक अच्छा प्लेटफॉर्म है, लेकिन कुछ लोगों के पोस्ट इतने असहज होत हैं कि उन्हें झेलना मुश्किल सा लगता है। ख़ैर..

भगवान करें कविता लौटे, वह खूब पढ़ी जाए। लेकिन कोई ‘सार्थक चिंतन’ का संदेश भी तो दे। पाठकों के हृदय पर छाप भी तो छोड़े। उसके मर्म में घुसे तो सही, आखिर घुसेगी नहीं तो जीवित कैसे रहेगी? 

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