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अमेरिका के केंसास में एक भारतीय की हत्या कर दी गई और एक गंभीर रूप से घायल हो गया। साथ ही उनको बचाने के लिए आगे आए एक अमेरिकी को भी गोली लगी है। ध्यान देने वाली बात ये है कि हमलावर ने ये कहते हुए दोनों भारतीयों पर गोली चलाई कि 'मेरा देश छोड़ कर चले जाओ'। ये हमारे लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। अमेरिका को अप्रवासियों का देश कहा जाता है।
असल में अमेरिका के मूल निवासियों को तो कब का वहां से बाहर निकाल दिया गया। अमेरिका में अमेरिका का तो कोई है ही नहीं। सभी वहां यूरोप से जाकर बसे हैं। लेकिन ऐसा लग रहा है जैसे ट्रंप की सरकार आने के बाद वहां के हालात कुछ बदल गए हैं। जब ट्रंप सरकार ने 7 मुस्लिम देशों को बैन किया तो कई लोगों ने ख़ुशी ज़ाहिर की। हमें तभी ये समझ लेना चाहिए था कि नफ़रत का ये तीर कभी हमारे ऊपर भी चलाया जा सकता है। ये घटना उसी का एक उदाहरण है।
हम भारतीय कहीं भी जाकर एडजस्ट हो जाते हैं। माहौल जैसा भी हो हम उसके मुताबिक़ खुद को ढाल लेते हैं। भले ही घर में मम्मी हमसे कोई काम न कराती हों लेकिन विदेश जाकर हम कोई भी काम करने को तैयार हो जाते हैं वो भी बेहद कम पैसों में। और यहीं से दिक्कत शुरू हो जाती है। उस देश के कुछ लोगों को ऐसा लगने लगता है जैसे हम उनका हक़ मार रहे हैं।
भारत से जो स्टूडेंट्स बाहर पढ़ने जाते हैं वो कम जगह में रह लेते हैं, कम खा कर रह लेते हैं और टॉयलेट साफ़ करने, रेस्टोरेंट में काम करने, गाड़ियां साफ़ करने तक को तैयार हो जाते हैं। यहां पर ये सारे काम छोटे लोगों के हैं लेकिन अब अमेरिका में हमारे रिश्तेदार तो ये देखने के लिए बैठे नहीं हैं कि हम क्या कर रहे हैं। विदेश में लोग अपने सपनों को पूरा करना पसंद करते हैं और वहीं हम भारतीय अपने मां-बाप के सपनों को पूरा करने की कोशिश करते हैं।
हमारे सांस्कृतिक मूल्य भी बहुत मायने रखते हैं। हम आमतौर पर जल्दी विरोध नहीं करते हैं। बुरी से बुरी परिस्थितियों में काम करने को तैयार रहते हैं, बस पैसे मिलते रहने चाहिए। खाड़ी देशों में काम करने गए भारतीयों की क्या हालत है ये सभी जानते हैं।
पश्चिमी देशों के लोगों के साथ दिक्कत सिर्फ़ हक़ के मारे जाने की ही नहीं है। एशियाई लोगों को कमतर समझने की भावना तो बहुत पुरानी है। इसकी जड़ में नस्लीय भेदभाव है। पश्चिम की नस्ल पूर्व से बेहतर है, ये बात लोगों के अंदर घर कर चुकी है। वक़्त के साथ चीज़ें बदली ज़रूर हैं लेकिन इसका असर अभी तक कम नहीं हुआ है।
अमेरिका वही देश है जहां सालों से रह रहे अफ़्रीकी मूल के अमेरिकी लोगों के साथ ही रंगभेद होता है। पश्चिमी देश के कुछ लोग अभी भी अफ़्रीकी और एशियाई लोगों को अपने से कमतर मानते हैं। ऐसे में ट्रंप की सरकार आने के बाद अगर ऐसे नस्लीय हमले बढ़ जाते हैं तो इसमें हैरान होने जैसी कोई बात नहीं है।
ऑस्ट्रेलिया एक ऐसा देश है जहां भारतीयों पर अब तक सबसे ज़्यादा हमले हुए हैं। स्टूडेंट्स भारी संख्या में वहां पढ़ने के लिए जाते हैं और वहीं बस भी जाना चाहते हैं। ऑस्ट्रेलिया की सरकार सारे हमलों को नस्लीय नहीं मानती। आपको बता दें कि 2009 के आस-पास मीडिया में ऐसी ख़बरों की भरमार थी जब ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों की हत्याएं तक हो गई थीं।
भले ही ट्रंप भारत के प्रति ख़ास लगाव दिखाते हों लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि वो एक बिज़नेस मैन हैं। आजकल सरकारें भी उद्योगपतियों के निशाने पर चल रही हैं। भले ही ट्रंप की लिस्ट में भारत का नाम अभी न हो लेकिन कल को हो भी सकता है। जिस सरकार की बुनियाद ही धर्म विशेष के लोगों से नफ़रत पर रखी गई है, उससे ज़्यादा उम्मीद लगाना बेवकूफ़ी ही होगा। भारत में हर धर्म के लोग रहते हैं। तो धर्म के नाम पर हमला तो भारतीयों पर भी हो सकता है।
सरकार को चाहिए कि वो रोज़गार पैदा करे जिससे कि 'ब्रेन ड्रेन' की समस्या भी रोकी जा सके और भारत के विकास में अधिक से अधिक स्किल्ड भारतीय अपना योगदान दे सकें।