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खबरें पढ़ते हुए अभी-अभी गूगल बाबा से पता चला है कि 7 अप्रैल को वर्ल्ड हेल्थ डे होता है और इस बार हेल्थ डे की थीम 'डिप्रेशन' यानी अवसाद रखी गई थी। भई ये क्या बला है? बाकी दिन अनहेल्दी होते हैं क्या? और डिप्रेशन में कौन नहीं है?
चलिए बात हेल्थ और डिप्रेशन की चल निकली है तो कामकाजी आदमी का हाल जान लीजिए। ऑफिस आए तो बॉस का डर... सीनियर की डांट... जूनियर के ताने... और फिर वॉशरूम के शीशे से पता चलता है कि अस्तित्व अभी बचा है, लेकिन यही हाल रहा तो जल्द ही खतरे में पड़ जाएगा। भई वो कहावत सुनी है न, बॉस इज ऑलवेज राइट... इसलिए उससे पंगा लेकर पहले से खराब चल रही सेहत और बिगाड़ने की किसको पड़ी!
कारोबारी या दिहाड़ी आदमी है तो आधा खून तो आजकल बाहर का मौसम चूस लेता है। आधा ग्राहकों को लुभाने में चला जाता है। यूपी में है और जवान भी है तो आधा टेंशन खाकी का बना रहता है कि पता नहीं कब रोमियो स्कवॉड का डंडा चल जाए।
शादीशुदा है और मेट्रो सिटी में गुजर-बसर करते हैं (वैसे भी क्या फर्क पड़ता है शहर में रहे या गांव में) तो खाना नसीब होने से पहले या होते-होते बीवी के नियमित तानों की डोज तयशुदा टाइम पर पक्की समझो। गजब की बात है कि इस बीमारी का इलाज प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक लगभग एक जैसा ही है... बहुत फर्क नहीं पड़ा है। इसे कायदे से वर्ल्ड हेल्थ डे से बाहर रखना चाहिए। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि महिलाओं की सेहत का मुद्दा विमर्श के लायक नहीं है। सच तो यह है कि दुनिया की आधी आबादी अगर अपनी सेहत का खयाल रखती तो हम-आप में से आधे भी ठीक से पनप नहीं पाते। हिंदुस्तानी कल्चर में इसीलिए उसे त्याग और वात्सल्य की मूर्ति ''मां'' कहा गया है।
बच्चों का हाल ऐसा है कि उनसे अपेक्षाएं सचिन तेंदुलकर और विराट विराट कोहली से भी ज्यादा कर ली जाती हैं। पांच साल के बच्चे की पीठ पर 15-20 किलो का बस्ता देखें तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। कहते हैं जवानी में स्ट्रगल ज्यादा होता है, लेकिन आजकल भईया बच्चों को हर जगह स्ट्रगल की मार झेलनी पड़ती है। घरवालों की कभी न खत्म होने वाली अपेक्षाएं, टीचरों की अपेक्षाएं... दोस्तों संग खेलकूद में भी आईपीएल जैसी प्रतिस्पर्धा... अरे भई बच्चे की जान लोगे क्या!
युवाओं और बेरोजगारों की डिप्रेशन की बात करना बेमानी है। उनकी डिप्रेशन नापने का पैमाना अभी तैयार नहीं हुआ है। कमाल की बात है कि फिर भी ऐसी दुकानों की कमी नहीं है जो युवाओं की डिप्रेशन को भगाने का दावा करती हैं। इनमें बाबा बंगालियों को शामिल कर लेना चाहिए जिनके आदमी रेडलाइट पर रुके किसी ऑटो या बस में झट से प्रचार सामग्री फेंक फुर्र हो जाते हैं। कमाल की बात यह भी है इनके इश्तेहारों में कई दफा वशीकरण स्पेश्लिस्ट से सलाह लेने की फीस महज कुछ नींबू और मिर्च बताए जाते हैं। बुजुर्गों बात कौन करे, उनका तो भगवान ही मालिक है।
अब भी आपको लगता है कि हेल्थ और डिप्रेशन की बात करें। भई इतने से समझलो और उपाय ढूंढ़ लो। ऊपर वाले ने ऊपर वाला माला इसीलिए दिया है कि समस्या का निदान निकाल लिया जाए। सच तो यह है कि सारे दिन ही सेहत के होते हैं, वो बात अलग है कि आज के गलाकाट कल्चर में आपकी सेहत की किसको पड़ी। इसलिए दवाओं से ज्यादा खुद पर यकीन करिए... अपने आस-पास सफाई रखिए। स्वच्छता के नियमों का कड़ाई से पालन करिए। अच्छे लोगों से मिलिए...अच्छे कामों में खुद को व्यस्त रखिए...बुजुर्गों और महिलाओं का सम्मान करिए....जीवों पर दया बनाए रखिए... और हर रोज अपने आप से यह सवाल करिए के आपके लिए जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए? कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी महान कारण के लिए आपका जन्म हुआ हो। वह कारण खोजिए।
दिल से खोजेंगे तो यकीन से कहता हूं कि आपको मिल जाएगा। (अब मुझसे मत पूछिएगा कि मुझे मिला या नहीं) और लाइफ में एक बार गोल सेट हो गया तो फिर हर दिन हेल्थी होगा... हर दिन हेल्थ डे होगा। डिप्रेशन तो पास फटक भी न पाएगी।