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डिटर्जेंट का मतलब क्या होता है? सफाई। अगर आप वैज्ञानिक कारणों की ओर देखें तो जानेंगे कि कुछ दाग-धब्बे, खासतौर पर तेल या फैट के धब्बे साबुन से साफ नहीं होते थे क्योंकि साबुन हाइड्रोफोबिक होता है इसलिए सर्फ़ या डिटर्जेंट बनाया गया। आज भी डिटर्जेंट की बिक्री उसकी सफाई के आधार पर ही होती है। 'चमकता व्हाइट हो तो टाइड हो' और 'दाग अच्छे हैं' जैसे पंच-लाइन टाइड और सर्फ़ एक्सेल की ब्रांड वैल्यू बढ़ा रहे हैं।
अभी फेसबुक पर जो वीडियो वायरल हो रहा है वो भी एक डिटर्जेंट के बारे में ही है जिसमें एक सांवले रंग के लड़के को वॉशिंग मशीन में डालकर डिटर्जेंट से धोकर गोरा बना दिया गया है। चीन के इस डिटर्जेंट के विज्ञापन को कई लोग रेसिस्ट मान रहे हैं तो कईयों का कहना ये है कि उस सांवले इंसान ने इसमें काम ही क्यों किया? उसे मना कर देना चाहिए था क्योंकि ये सिर्फ़ उसके बारे में नहीं है, ये नस्लभेदी विज्ञापन है।
कई चीनी लोग इस बात का दावा कर रहे हैं कि उन्होंने अपने देश के चैनलों पर ये विज्ञापन कभी नहीं देखा और न ही वहां के सोशल मीडिया पर ये विज्ञापन देखने को मिल रहा है। बहस इस बात पर भी हो रही है कि क्या हमें अब भी ये समझने की ज़रूरत है कि सफाई और सफेदी में फ़र्क होता है? हर साफ चीज़ सफेद नहीं हो सकती और हर सफेद चीज़ साफ नहीं होती। फिलहाल इसपर खूब बातें हो रही हैं।
विकास और तकनीक के तमाम दावे करने वाले लोग अब भी गोरेपन में उलझे हुए हैं। रंग के आधार पर अच्छाई और बुराई तय की जाती है। आज भी मां दुर्गा बहुत खूबसूरत, बड़े नैनों वाली और अच्छी कद-काठी वाली होती हैं और महिषासुर काला होता है। बुराई का रंग ही 'खराब' है और यहां खराब का मतलब है काला। हम ब्लैक को सेक्सी मानने के बावजूद इंस्टेंट गोरेपन के लिए परेशान हैं वो भी इस कदर कि सफेद देखते ही उछल पड़ते हैं।
हाल ही में आए बजाज सीएफएल के एक विज्ञापन में भी ऐसी ही चीज़ें दिखाई गई थीं। सांवली लड़की को लड़के वाले देखने आने को थे। घर का बल्ब बदल कर उन्हें धोखे में रखा गया कि लड़की गोरी है और शादी पक्की हो गई। आज भी वैवाहिक विज्ञापनों में आपको लम्बी, खूबसूरत और खासतौर पर गोरी लड़कियों की मांग देखने को मिलेगी। अगर पूछो कि गोरी लड़की क्यों चाहिए तो कई बार इतने घटिया जवाब मिलते हैं कि क्या कहें। काली लड़की कौन पसंद करता है? लड़की को सुंदर ही होना चाहिए.. जैसी बातें आम हैं और सुंदरता मतलब गोरापन।
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वैसे यहां बहस इस बात पर भी हो सकती है कि लड़की को सुंदर ही क्यों होना चाहिए? पर लौटते हैं इस विज्ञापन पर, लड़की ने वॉशिंग मशीन में धोखे से लड़के को डाल दिया और जो लड़का उसमें से निकला उस पर फिदा हो गई। ऐसे विज्ञापन और ऐसी मानसिकता तब तक खत्म नहीं होगी जबतक वॉशिंग मशीन से निकलता लड़का खुद नई स्किन से प्रेम करती लड़की को ठुकराना नहीं सीख लेता। जबतक बल्ब से गोरी होती लड़की अपना रिश्ता टूट जाने के डर के बावजूद खुद खड़ी होकर यह नहीं कह देती कि मैं सांवली हूं और मुझे अपना यह सलोनापन पसंद है। विज्ञापन हमें एक अभाव के भाव से ग्रस्त करता है और उसी में उसकी सफलता है।
काश! कि यह लड़का रंग-मोह की लालसा से ऊपर उठकर सोच पाता और इस एहसास को समझ पाता कि रंग बदलकर उसने अपनी पहचान खो दी है।