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इमरजेंसी से ठीक पहले क्या हो रहा था प्रधानमंत्री आवास में..???

Shivendu Shekhar/firkee.in Updated Fri, 09 Dec 2016 12:09 PM IST
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विस्तार

25 जून 2016, 41 साल बाद ठीक वही दिन। जिस दिन इस देश का इतिहास बदल गया था। हमारे देश को ना जाने कितने ही नए राजनेता दे गया। हां, मैं अपने देश के सांसदों और विधायकों के बारे में ही कह रहा हूं। जो इस देश का भविष्य तय करते हैं।

ये वो दौर था जब 'इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया' हुआ करता था....

जी हां, मैं बात कर रहा हूं 25 जून 1975 की उसी रात की। जिस रात तत्कालीन इंदिरा सरकार द्वारा प्रस्तावित उन चार लाइनों के डॉक्युमेंट पर दस्तखत कर राष्ट्रपति फकरुद्दीन अली अहमद ने देश को इमरजेंसी की सौगात दी थी।

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इमरजेंसी के बाद क्या हुआ। इस पर बहुत बातें हुई। मेरे होश में आने के बाद से जब भी कभी किसी राजनैतिक मुशायरे का हिस्सा बनने का मौका मिला। वहां एक बात हर जगह बहुत ही सामान्य होती। कांग्रेस पार्टी पर लगाई जा रही तोहमत में 25 जून की यह तारीख हमेशा याद दिलाई जाती। यह तारीख शायद कांग्रेस पार्टी के दामन पर लगे अलग-अलग छींटों में सबसे तेज और भड़कीला मालूम होता है।

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आज आपको सुनाते हैं किस्सा, इस ऐतिहासिक घटना से ठीक पहले 1,सफदरजंग रोड पर बने उस बंगले के अंदर क्या-क्या हो रहा था। जो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का आवास हुआ करता था। 12 जून 1975, सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। सुबह का वक्त और आसमान में काले बादल घुमड़ रहे थे। लम्बे समय के इंतज़ार के बाद बारिश आने वाली थी।
 

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गर्मी बहुत थी। लेकिन, इंदिरा गांधी हर दिन की तरह अपने कमरे में योग कर रही थीं। तभी उनकी पोती यानि प्रियंका के रोने की आवाज़ उनके कानों में जाती है। वो अभी योग से उठ कर उस ओर बढ़ ही रही होती हैं लेकिन तब तक प्रियंका चुप हो जाती है। इन्हें ये समझ आ जाता है कि प्रियंका की मां यानी सोनिया उसके पास आ गई हैं। वो फटाक से अपने वॉशरूम में जा कर तुरंत नहा-धोकर तैयार हो जाती हैं। कुछ लोग कहते हैं, इन्दिरा गांधी जितनी तेजी से अपने कपड़े पहन कर तैयार हो जाती थीं। उतनी जल्दी में, बहुत कम लड़के भी तैयार हो पाते हैं। दिनभर के काम से भरे होने के बाद उनके पास न अपने परिवार, न दोस्त और न ही कुछ पढ़ने का वक़्त होता था।

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​अभी वो अपने कमरे में नाश्ता ले ही रही थीं कि तभी उनके सेक्रेट्री आर.के.धवन वहां पहुंचते हैं। और इंदिरा गांधी को दिन की पहली बुरी खबर मिलती है। इनके एक बहुत ही पुराने मित्र, सलाहकार डी.पी.धार का हर्ट अटैक की वजह से देहांत हो गया था। इंदिरा वहां से सीधे अस्पताल के लिए निकलीं। दोपहर के वक़्त वो घर वापस आईं। लेकिन, आज का दिन अभी खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। घर पहुंचते ही उनकी सेक्रेट्री ने गुजरात एलेक्शन में पार्टी की हुई हार की जानकारी दी। अभी इन सब से इंदिरा बाहर निकल पातीं। तभी दोपहर के 3 बजे एक और खबर आई। और यहीं से देश की राजनीति के करवट लेने की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी थी। यह खबर इलाहाबाद से थी।  

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​इनके राजनैतिक विरोधी राज नारायण जिसे इन्होंने लगभग 1 लाख वोटों से हरा दिया था। उसी राज नारायण द्वारा इंदिरा के खिलाफ इलाहाबाद कोर्ट में किए गए एक केस का फैसला आ गया था। टेलीप्रिंटर पर आए उस संदेश को राजीव ने पढ़ कर सुनाया।

इस पर लिखा था, "1971 चुनाव प्रचार के दौरान आचार संहिता के उल्लंघन और सरकारी तंत्र का इस्तेमाल करने के अपराध में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दोषी पाया गया है। जिसका मतलब वो चुनाव परिणाम अमान्य था। ट्रिब्यूनल ने कांग्रेस पार्टी को किसी फैसले पर पहुंचने के लिए 20 दिन का वक़्त दिया।" जिससे सरकार चलती रहे। साथ ही साथ इस फैसले ने इंदिरा गांधी पर अगले छ: सालों तक किसी पब्लिक ऑफिस का पदभार लेने पर भी बैन लगा दिया था।

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लंदन के एक अखबार ने उस वक़्त लिखा था, "यह ठीक वैसा ही फैसला है, जैसे किसी प्रधान मंत्री को ट्रैफिक सिग्नल तोड़ने के आरोप में कुर्सी से हटा दिया जाए।" पर्दे के पीछे हर कोई इस फैसले को गलत बता रहा था। यहां तक कि इंदिरा के विरोधी भी इस फैसले को जजों की हद बता रहे थे। लेकिन यह हिन्दुस्तान था। इस खबर ने पूरे देश में भूचाल ला दिया था। लोग सड़कों पर उतर आए थे।

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इंदिरा के घर नेताओं के तांते लगने शुरू हो गए थे। पार्टी के सभी बड़े नेता घर पर जमा हो चुके थे। बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थशंकर रे, लॉ मिनिस्टर एच.आर गोखले, बाबू जगजीवन राम, उमाशंकर दिक्षित, देवकांत बरुआ सहित अन्य बड़े नेता। सोनिया सब को चाय पिलाने में व्यस्त थीं। और इंदिरा सबसे अपने रिजाइन देने की बात कर रही थीं। 

लेकिन....  
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​तभी संजय गांधी अपनी फैक्ट्री से घर पहुंचते हैं। घर पहुंचते ही वो अपने भाई राजीव से सवाल पूछते हैं। अब वो क्या करने की सोच रही हैं? राजीव का जवाब संजय को हिला कर रख देता है। वो भाग कर लिविंग रूम में पहुंचते हैं। और अपनी मां के हाथ को पकड़ते हुए उनसे अकेले में थोड़ी देर बात करने को कहते हैं। दोनों स्टडी रूम में चले जाते हैं। इंदिरा गांधी संजय से साफ़-साफ़ कहती हैं कि मेरे पास रिजाइन देने के सिवा और कोई चारा नहीं है। ये मुझे देना ही होगा। लेकिन, संजय अपनी जिद्द पर उन्हें मना लेते हैं। और इस्तीफा न देने की बात करते है।  

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इंदिरा जो अब तक सब से अपने इस्तीफे की बात कर रही थीं। उनसे अपनी लड़ाई लड़ने की बात कहती है और इस्तीफे के प्रस्ताव को वापस ले लेती हैं। अगले कुछ दिनों तक संजय और उनके बेहद करीबी आर.के.धवन ने मिलकर इंदिरा के सपोर्ट में कई रैलियां आयोजित की और विरोध प्रदर्शन किए। बसें और ट्रेनों में लोग भर-भर कर पहूंच रहे थे।

इन सब के बीच 20 जून 1975 को राजधानी के बोट क्लब में कांग्रेस पार्टी ने एक समर्थन रैली आयोजित की। जिसमें पहली बार पूरा गांधी परिवार इंदिरा के साथ एक मंच पर खड़ा दिखा था। यह रैली बहुत सफल रही।

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इस दौरान जे.पी. के समर्थकों ने भी राजधानी में कई जगह विरोध प्रदर्शन किए।

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और फिर 25 जून को इंदिरा ने सिद्धार्थशंकर रे को अपने घर के ऑफिस में बुलाया। सिद्धार्थ देखते हैं कि पूरा टेबल IB की रिपोर्ट्स से भरा हुआ है। वो बहुत टेंशन में दिख रही थीं। वो कहती हैं, ऐसा नहीं हो सकता, ये होने नहीं दिया जा सकता। मुझे खबर मिली है कि जे.पी. और उनके समर्थक आज रात राम लीला मैदान में एक रैली करने जा रहे हैं जिसमें वो पुलिस और आर्मी के जवानों से विद्रोह करने की मांग करने जा रहे हैं। हमें इसे हर हाल में रोकना होगा। वो लगातार बोले जा रही थीं कि देश कितनी बड़ी मुश्किल के सामने खड़ा है।

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तभी सिद्धार्थ ने उन्हें रोकते हुए पूछ दिया, कहीं आप देश में इमरजेंसी लगाने की बात तो नहीं कह रहीं? इंदिरा ने हां में सिर हिलाते हुए जवाब दिया। वास्तव में वो उनसे सलाह नहीं मांग रही थीं बल्कि पिछली रात ही उन्होंने अपने बेटे संजय गांधी के साथ चर्चा कर इसे तय कर लिया था। 

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सिद्धार्थ जो एक वकील भी थे। उन्होंने इंदिरा से संविधान को एक बार ठीक से देख लेने का वक़्त मांगा। इंदिरा उनसे जल्दी करने को कहती हैं और फिर सिद्धार्थ 3 बजे फिर से वापस लौटे।
और संविधान के आर्टिकल 352 का जिक्र करते हुए इंदिरा को इमरजेंसी लगाने की हालात के बारे में बताते हैं।

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सिपाहियों और आर्मी से विद्रोह की मांग को देश के खिलाफ़ विद्रोह और राष्ट्र को खतरा मानते हुए इमरजेंसी के कागज़ात पर तत्कालीन राष्ट्रपति फकरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत ले लिये  जाते हैं।

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और इस एक दस्तखत के बाद दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र एक तानाशाह शासन में तब्दील हो जाता है। सरकार अब किसी को भी बिना किसी पूर्व जानकारी के गिरफ्तार कर सकती थी।

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मौलिक अधिकारों पर रोक लग गया और जगह-जगह सेंसरशिप शुरू हो गई। जो अगले 21 महीनों तक चली।

Reference: The Red Saree (Javier Moro)


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