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क्यों देखनी चाहिए PINK? मेरा नज़रिया..

Updated Mon, 19 Sep 2016 01:26 PM IST
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विस्तार

फिल्में देखने के लिए ही बनी होती हैं ऐसा बेसिर-पैर का तर्क देकर आपको कोई भी फिल्म देखने को नहीं कहूंगी। ऐसे तो किताबें भी पढ़ने के लिए ही बनी हैं पर आप सारी किताबें तो नहीं पढ़ते न! तो क्यों देखनी चाहिए आपको फिल्म पिंक आइए जानते हैं -
स्टार कास्ट - तापसी पन्नू, अमिताभ बच्चन, कीर्ति कुल्हाड़ी, एंड्रिया तेरियांग, अंगद बेदी, पीयुष मिश्रा निर्देशक - अनिरुद्ध रॉय चौधरी अवधि - 2 घंटे 16 मिनट पिंक कहानी है मेट्रो सिटी में रहने वाली मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती उन लड़कियों की जो स्वावलंबी बनने की कोशिश में घर से बाहर निकल पाई हैं। वो लड़कियां जिन्हें मेट्रो शहरों में वर्किंग गर्ल्स कहा जाता है। तमाम कायदे-कानून के बाद भी अगर ऐसी लड़कियां किसी कानूनी दावपेंच में फंस गईं तो किस तरह समाज उनपर ठप्पे पर ठप्पा लगाकर उनका जीना मुहाल करता है इसी ताने-बाने पर पूरी फिल्म है। समाज के जिन रुढ़ विचारों पर हम जैसी तमाम लड़कियां बहुत दिनों से आवाज़ उठा रही हैं उन सबका निचोड़ है पिंक। फिल्म शुरू होती है लड़कों के एक समूह के साथ। तीन लड़के गाड़ी से जल्दी-जल्दी हॉस्पिटल की ओर भागते हैं। उनमें से एक लड़के, राजवीर (अंगद) के माथे और बाईं आंख पर चोट लगी है, खून रीसता है। उनमें से कोई कहता है - इन लड़कियों ने क्या कर दिया यार! Pink1 दूसरी गाड़ी में तीन लड़कियां हैं, बहुत ही दुखी और परेशान। वो जल्दी घर पहुंचना चाहती हैं। ये तीनों दक्षिण दिल्ली के सर्वप्रिय विहार के एक फ्लैट में साथ रहती हैं। मीनल अरोड़ा (तापसी) दिल्ली की लड़की है, फलक अली (कीर्ति) लखनऊ से है और एंड्रिया तेरियांग (एंड्रिया) मेघालय से। राजवीर के माथे पर टांके लगते हैं। इधर लड़कियां परेशान रहती हैं। इनकी परेशानी की वजह ये भी है कि ये लड़कियां यहां वर्किंग विमेन वाली अच्छी ज़िंदगी जीने आई थीं पर एक गलती हो गई है। राजवीर ने रिज़ॉर्ट में मीनल के साथ ज़बरदस्ती की जिसका मीनल ने खूब विरोध किया और बात न बनने पर आवेश में आकर उसने टेबल पर रखी एक बोतल राजवीर के सिर पर दे मारी।

लड़कियां चाहती हैं कि सबकुछ भूलकर आगे बढ़ें पर ऐसा नहीं हो पाता है। ये लड़कों के ईगो का मामला बन जाता है और बात ये होती है कि लड़कियों को समय-समय पर उनकी औकात बताते रहना चाहिए।

घर से दूर रहती लड़कियों को जिस हद तक परेशान किया जा सकता है वहां तक परेशान किया जाता है। मकान मालिक को फोन कर के कहना कि ये 'वैसी' लड़कियां हैं और फिर धमकी देना कि मकान खाली करवाओ और फिर तीनों को अलग-अलग ढंग से तंग करना इसकी एक कड़ी है। मीनल पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराने जाती है और वहां ड्यूटी पर तैनात थानेदार की मुफ्त सलाह लेकर वापस लौटती है। थानेदार समझाता है कि अच्छे घर की लड़कियां ऐसे किसी रिज़ॉर्ट में, किसी के कमरे में चली जाती हैं क्या? बताओ? आपलोगों का गिव एंड टेक रिलेशन रहा फिर रहा शिकायत करने आ गए। फिर बिंदी वालों की फौज आ जाएगी मोमबत्ती जलाने। फलक सबकुछ ठीक करने की कोशिश करती है पर बात बिगड़ जाती है और अगली सुबह ऑफिस पहुंचते-पहुंचते उसकी एक फोटो वायरल हो जाती है जिसमें एडित करके उसके हाथ में एक बोर्ड पकड़ा दिया गया होता है और वो रातों-रात कॉल गर्ल बन जाती है। फलक का बॉस ये समझता है कि ये किसी की कारस्तानी है पर उसे अपने ऑर्गेनाइज़ेशन की इमेज की फ़िक्र होती है और फलक की नौकरी छूट जाती है। एंड्रिया एक कॉफी शॉप में बैठी होती है जहां से उसका पीछा किया जाता है। कुल-मिलाकर समाज में 'लड़की' नाम के इस तत्व को जितनी तरह से परेशान किया जा सकता है, किया जाता है।

मीनल के पास राजीव के एक दोस्त का फोन आता है जो उसे धमकी देता है। मीनल उसे डांटती है और सामने आने की बात कहती है पर जैसे ही बात खत्म होती है, वो अपने आस-पास देखती है और तेज़ी से घर की ओर भागती है। मतलब ये कि घर से बाहर रहने वाली लड़कियां बोल्ड तो होती हैं और अपने हिस्से की लड़ाई लड़ने की कुव्वत भी रखती हैं पर उन्हें इस बात का एहसास रहता है कि प्रकृति ने उनका सृजन जिस तरीके से किया है उसका कभी भी दुरुपयोग हो सकता है। आप सोचिए, बात खत्म होते ही क्यों भागती है मीनल? या ऐसी बोल्ड लड़कियों को क्यों भागना पड़ता है? क्या वो मौत सरीखे किसी खतरे से डरती हैं? नहीं, वो डरती हैं कि उनके वक्ष, उनकी योनि का गलत इस्तेमाल न हो।

फोन पर बातचीत के बात राजवीर का दोस्त बड़े ही अजीब ढंग से कहता है - इसमें तो बहुत चुल है यार! इसकी लेने में मज़ा आ जाएगा! ये कहते वक्त हाव-भाव ऐसे होते हैं जैसे वो मीनल के साथ सेक्स कर के उस पर फतह हासिल कर लेगा। अगली सुबह ऐसा ही होता है। डियर पार्क के बाहर से मीनल उठा ली जाती है। राजवीर का एक दोस्त उसका रेप करता है और रात तक उसे ये बता कर छोड़ दिया जाता है कि ये सिर्फ़ ट्रेलर है। इस बीच उसी सोसाइटी में रह रहे दीपक सहगल (अमिताभ बच्चन) मीनल का अपहरण देख लेते हैं और शिकायत पर शिकायत करते हैं पर समाज की अत्यंत सक्रीय पुलिस कुछ नहीं करती है और उन्हें ये सुनाया जाता है कि इस घटना की किसी भी थाने में रिपोर्ट नहीं दर्ज है।

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फिल्म में दीपक का एक महिला (सारा) से कोई संबंध दिखाया गया है, जो कहीं स्पष्ट नहीं हुआ है। देखकर लगता है कि दोनों में अपार प्रेम है पर शायद ये प्रेम विवाह तक नहीं पहुंच सका या फिर इन दोनों की कोई औलाद नहीं हो पाई क्योंकि एक दस्तावेज पर अंगूठा लगाते वक्त सारा कहती है कि "काश तुम्हारा भी कोई नॉमिनी होता। सोच लो, मैं अब भी तैयार हूं।" तीनों लड़कियां रिपोर्ट दर्ज कराने जाती हैं। बात ए.सी.पी. तक पहुंचती है फिर जब पता चलता है कि राजवीर किसी एम.एल.ए. का भतीजा है तो मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है। शिकायत दर्ज कराने के बाद पुलिस मीनल के फ्लैट पर पहुंचती है और मीनल को वहां से गिरफ्तार कर लिया जाता है। समाज के तमाशबीन वहीं खड़े-खड़े ऐलान कर देते हैं कि ये निहायत घटिया लड़कियां हैं।

महिला पुलिस को कानून जैसे पृष्ठभूमि में जिस करुण स्वभाव के आधार पर उगाया गया था उसकी असलियत फिल्म में दिखती है। जब हाथ में पावर आ जाता है तो ऐसी कई महिलाओं की ममता और करुणा यमुना नदी में बह जाती है और ये किसी महिला के साथ गलत करने से भी नहीं चूकतीं, ये स्पष्ट है।

अब दीपक सहगल का काम शुरू होता है। मीनल को बेल मिलती है और फिर केस पर सुनवाई होती है। मीनल का केस जाने-माने वकील दीपक सहगल लड़ते हैं। अजीब ये है कि समाज में कई लड़कियां ऐसे ही फंसती चली जाती हैं और उन्हें इस फिल्म की तरह कोई दीपक सहगल नहीं मिल पाता। राजवीर की तरफ से प्रशांत (पीयुष मिश्र) केस लड़ते हैं। फिल्म का सबसे दिलचस्प हिस्सा कोर्ट वाले दृश्य हैं। अमिताभ अपनी दलीलों में बड़ी ही सहजता से समाज की रुढ़ियों पर प्रहार करते हैं। वो कहते हैं कि लड़कियों के लिए एक रूल मैनुअल होना चाहिए। रूल नम्बर एक - किसी भी लड़की को किसी भी लड़के के साथ एक कमरे में नहीं जाना चाहिए क्योंकि ये मान लिया जाता है कि लड़का-लड़की सेक्स कर रहे हैं। रूल नम्बर दो - लड़की को लड़कों से बात करते वक्त हंसना नहीं चाहिए और उन्हें हाथ नहीं लगाना चाहिए नहीं तो उन्हें लगेगा कि लड़कियां हिंट दे रही हैं। ऐसे ही वे सामाजिक परिप्रेक्ष्य पर कटाक्ष करते हैं और समाज के अनुसार लड़कियों के लिए मैनुअल बताते हैं। एंड्रिया जब विटनेस बॉक्स में आती है तो प्रशांत सवाल यहां से शुरू करते हैं कि आप कहां से हैं? अरुणाचल प्रदेश से, मेघालय से? इसके बाद दीपक सहगल यही सवाल एंड्रिया से करते हैं और फिर खुद ही बोलते चले जाते हैं - ओह! मेघालय.. मेघा, माउंटेन, ब्यूटी, फुटबॉल। जज पूछते हैं कि इसका केस से क्या मतलब है तो दीपक सहगल बड़ी ही सहजता से कहते हैं कि मतलब होगा। मतलब होगा तभी तो प्रशांत जी ने मुकेश (होटल मैनेजर) से नहीं पूछा कि वो राजस्थान से हैं। सरला (इंस्पेक्टर) से नहीं पूछा कि वो गुड़गांव से हैं पर एंड्रिया से पूछा गया कि वो मेघालय से हैं। ऐसे ही केस तमाम दलीलों पर चलता रहता है। अमिताभ एक अनुच्छेद की भूमिका बनाने के बाद राजवीर से कहते हैं कि वो पॉकेट से अपना हाथ निकाल ले और फिर एक बार प्रशांत के अत्यधिक बोलने पर ये कहते हैं कि आपने राजवीर को क्यों बुलाया है यहां, खुद ही कहानी सुना देते। ऐसे कई दृश्य हैं जहां अमिताभ सहजता से चुटकी लेते हैं और हंसी आ जाती है। व्यंग्य में जितनी सहजता हो, उसका रस उतना ही बढ़ जाता है। केस चलता रहता है, सामाजिक रुढ़ियों पर खूब प्रहार होता है और अंत में क्लोज़िंग नोट पर दीपक सहगल जब जज के सामने अपनी बात रखते हैं तो कहते हैं - NO! No your honour! My client said no! नो एक शब्द नहीं है। एक वाक्य है। नो का मतलब नहीं होता है फिर चाहें वो आपकी दोस्त हो, गर्ल फ्रेंड हो, कोई सेक्स वर्कर हो या आपकी बीवी ही क्यों न हो।

इस स्टेटमेंट से अमिताभ ने उन तमाम लोगों के मुंह पर तमाचा मारा है जो समझते हैं कि ये 'ऐसी' या 'वैसी' लड़की है। इसका इस्तेमाल किया जा सकता है, ये लड़कियां इसी लिए बनी ही होती हैं। या लड़की अगर छोटे कपड़े पहनती है, बार में जाती है, शराब पीती है तो उसके साथ सेक्स करना आसान है। या फिर जो लड़की कई बार सेक्स कर चुकी है उसे तो मना नहीं करना चाहिए, एक बार और हो जाएगा तो क्या फ़र्क पड़ेगा। या वो लोग जो सोचते हैं कि सेक्स वर्कर क्यों मना करेगी? उसका तो काम ही यही है.. और फिर वो लोग भी जो समझते हैं कि ब्याह कर लाए बीवी पर मलिकाना हक जताने का उन्हें लाइसेंस मिल गया है। "नो एक शब्द नहीं, वाक्य है" अपने आप में पूरी फिल्म को परिभाषित करता है।

फिल्म की पटकथा मज़बूत है। डायलॉग सामाजिक परिप्रेक्ष्य पर जिस तरीके से प्रहार करते हैं उसके लिए लेखक काबिल-ए-तारीफ़ हैं। फिल्म शुरू होते वक्त अगर ग़ौर किया जाए तो स्टार कास्ट में पहला नाम तापसी पन्नु का आता है, अमिताभ का नाम बाद में है। तापसी ने अच्छी एक्टिंग की पर अमिताभ बाज़ी मार ले गए। वो जिस लहज़े में अपनी दलीलें रखते हैं और सोसाइटी के एक फ्रीकी मेंबर के रूप में जिस तरह रहते हैं उसे देखकर लगता है कि उम्र के साथ उनका अभिनय निखरता जा रहा है। तीनों लड़कियों की केमिस्ट्री अच्छी है और ये कहीं से भी ड्रामैटिक नहीं लगती। राजवीर के किरदार में अंगद ने लड़कियों को लेकर अपनी जैसी मानसिकता पेश की उससे उनसे नफ़रत हो जाती है और यही कड़ी उनके किरदार को कामयाब बनाती है। पीयुष मिश्र किरदार के अनुरूप अभिनय करते हैं और फिल्म में कई जगह हास्य का पुट घोलते नज़र आते हैं। Pink4 सबसे अच्छी बात ये है कि फिल्म बिल्कुल संतुलित है। कहीं से किसी भी चीज़ की अधिकता नहीं है। फिल्म को हाई-प्रोफाइल बनाने के लिए इसमें कोई खंडाला या पेरिस या लंदन का सीन नहीं घुसाया गया। दर्शक को लुभाने के लिए किसी आइटम सॉन्ग या रोमांटिक सीन को जगह नहीं मिली है। फिल्म में जितने दृश्यों की ज़रूरत है उतने ही हैं। दक्षिण दिल्ली, गुड़गांव और कोर्ट के लिए एक कमरा, लोकेशन के नाम पर बस इतनी ही जगहों का इस्तेमाल किया गया है। फिल्म खत्म होते वक्त आप देख सकते हैं कि कैसे तीनों लड़कियां उस रिज़ॉर्ट में गईं और मीनल से साथ क्या हुआ जिसके बाद उसे डिफेंसिव होते हुए बोतल चलानी पड़ी। उसके बाद अमिताभ के स्वर में एक बेहतरीन कविता है। आखिरी क्षण तक पटकथा दर्शक को बांधे रखती है। इसमें जो 2-3 गाने हैं वो कहानी को रोकते नहीं, आगे बढ़ाते चले जाते हैं। थियेटर से निकलते वक्त आप इस एहसास के साथ निकलते हैं कि कुछ बहुत अच्छा और सारगर्भित देखा है। किन्हें देखनी चाहिए - ये फिल्म सभी को देखनी चाहिए क्योंकि ऐसी फिल्में वाकई प्रोत्साहन की हकदार हैं। हमेशा सिर्फ़ मसालेदार फिल्में बॉक्स ऑफिस पर हिट होती रहीं तो ऐसी फिल्मों के निर्माता-निर्देशक का मनोबल टूटेगा और फिर एक ऐसा दौर भी शुरू होगा जब आपके पास मसालेदार फिल्मों के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। ख़ैर, शुक्र है पिछले कुछ सालों से अच्छे सब्जेट पर बनी फिल्में देखने को मिल रही हैं। हर लड़की को देखनी चाहिए ये फिल्म क्योंकि इन फिल्मों के बाद थियेटर से निकलते वक्त आप मेट्रो लाइफ के अनुभव के अलावा बहुत सारा मनोबल भी लेकर निकलते हैं। समाज के उस वर्ग को भी ये फिल्म देखनी चाहिए जो कहते हैं कि स्कर्ट पहनने और शराब पीने वाली लड़कियां 'ऐसी' ही होती हैं। उनके साथ 'ऐसा' ही होना चाहिए। नहीं, मैं ये नहीं कह रही कि वो इसके बाद गौतम बुद्ध बन जाएंगे पर उनके मन पर जमी सतही परत थोड़ी हिलेगी ज़रूर। अगर सिनेमा समाज का दर्पण है और फिल्मों से आजतक हम बहुत कुछ सीखते, सबक लेते और कॉपी करते आये हैं तो ये फिल्म देखनी चाहिए, सीखने के लिए इसमें बहुत कुछ है। लड़कियों के लिए पिंक जैसे शब्द मुझे अटपटे ही लगते रहे हैं पर यहां पिंक ये एहसास दिलाती है कि हम ऐसे हैं, अपने लिए हैं और हमें ऐसे ही स्वीकार करने की आदत डालो। तुम्हें इससे परेशानी है तो अपनी सुरक्षा के इंतज़ाम करो, हमपर बेड़ियां डालना बंद करो।  - रीवा सिंह

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