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मेडल लाणे के लिए सपोर्ट कोई ना देत्ता, पर मेडल ना मिले तो गाली सब देत्ते हैं... रै मेडलिस्ट पेड़ पे नहीं उगते, उन्हें बनाना पड़ता है... प्यार से, मेहनत से लगन से...। ये डायलॉग आमिर खान की सुपर-डुपर हिट फिल्म दंगल के हैं। इसमें कोई शक नहीं कि आमिर ने महावीर फोगाट के किरदार में जान फूंकने के लिए दिन-रात मेहनत की। रूपहले परदे पर जब यह फिल्म आई तो स्क्रीन पर आमिर का पहलवान अवतार लोगों को खूब भाया भी। लेकिन नेशनल फिल्म अवॉर्ड की जूरी के कानों में जूं तक न रेंगी और पहले से नेवी की वर्दी पर ढेरों मेडल समेटे रुस्तम पावरी उर्फ अक्षय कुमार को एक और मेडल (बेस्ट एक्टर का फिल्म अवॉर्ड) दे दिया।
शुक्रवार को 64वें नेशनल फिल्म अवॉर्ड्स की घोषणा हुई। अक्षय कुमार को फिल्म 'रुस्तम' के लिए बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिला। लेकिन आमिर की फिल्म दंगल के रिलीज होने के साथ ही फिल्मी पंडितों को पूरा भरोसा था कि फिल्म कम से कम चार कैटेगरी में राष्ट्रीय फिल्म अवॉर्ड ले जाएगी।
आमिर की दंगल के मुकाबले अक्षय की रुस्तम कितनी टिकती है, यह तो हर दर्शक जानता है, लेकिन इसके कुछ पहलुओं पर बात करना जरूरी हो जाता है। दोनों ही फिल्में सच्ची कहानियों पर आधारित हैं। दोनों ही फिल्मों को दर्शकों ने खूब पसंद भी किया। लेकिन दोनों ही फिल्मों के सामाजिक पहलू को देखें (देखना इसलिए बनता है क्योंकि किसी ने कहा है कि सिनेमा समाज का आईना होता है) तो दंगल का दायरा रुस्तम से कहीं बड़ा नजर आता है। रुस्तम के किरदार में मुख्य कलाकार नेवी का चोला पहनकर बीवी के आशिक को मार डालता है और बीच-बीच में देश भक्ति के जज्बे की दलीले भी देता है।
फिल्म में वकील जब उससे पूछता है कि कमांडर रुस्तम पावरी यूनीफॉर्म में बैठे हैं, जब खून करके उन्होंने अपने आप को सरेंडर किया था, तब भी ये यूनीफॉर्म में थे। यूनिफॉर्म का पूरा इस्तेमाल कर रहे हैं। इस बात का जवाब रुस्तम देता है- मेरी यूनिफॉर्म मेरी आदत है। जैसे कि सांस लेना, अपने देश की रक्षा करना, बेझिझक निस्वार्थ अपना फर्ज निभाना, मैंने कोई खून नहीं किया, ये बात आपके सामने मैं नहीं खुद प्रॉसिक्यूशन साबित करेगा। और आखिरकार अपनी चालाकी और स्मार्टनेस से रुस्तम मुकदमा जीतता है, उसकी जयजयकार होती है। कुलमिलाकर विवाहेत्तर संबंधों की कड़वाहट पर टिकी फिल्म की कहानी देख दर्शक अंत में खुद को ठगा महसूस करता है। अक्षय ने अपनी बाकी फिल्मों के मुकाबले इसमें कुछ खास अदाकारी की हो तो ऐसा नहीं जान पड़ता।
इसी के उलट बात आमिर की करें तो दंगल रिलीज होने के बाद जिसने भी फिल्म को देखा उसके मुंह से वाहवाही ही निकली। इसकी वजह भी थी। आमिर ने मिस्टर परफेक्शनिस्ट के तमगे को पहलवान महावीर सिंह फोगाट के रोल में बखूबी निभाया। फिल्म के लिए उन्होंने अपना वजन भी घटाया-बढ़ाया। हरियाणा का एक्सेंट सीखा। फिल्म की कहानी ने भी पूरे समाज को छुआ। फिल्म में पहलवान पिता की दो पहलवान बेटियों गीता फोगाट और बबीता फोगाट के संघर्ष की कहानी कई मायनों में समाज को सकारात्मक और सार्थक संदेश देती है।
फिल्म का एक डायलॉग 'म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के...' बेटी पढ़ाओ- बेटी बचाओ मुहिम के लिए बढ़िया उदाहरण हो सकता है। एक जगह फिल्म में आमिर कहते हैं, 'मैं हमेशा यो बात सोच के रोता रेहा कि छोरा होत्ता तो देश के लिए कुश्ती में गोल्ड लाता, यो बात मेरी समझ में ना आई कि गोल्ड तो गोल्ड होत्ता है...छोरा लाए या छोरी।' यानी एकबार और समाज को संदेश मिलता है कि बेटियों को लेकर किसी भी तरह के भेदभाव की जरूरत नहीं है। बेटा हो या बेटी दोनों बराबर हैं। दोनों बराबर के सम्मान के भी हकदार हैं।
कुल मिलाकर दंगल के ही अपने डायलॉग से फिलहाल आमिर को संतोष करना पड़ेगा। जब वह कहते हैं- जे एक बात हमेशा याद रखणा बेटी... गर सिल्वर जीत्ती तो आज नहीं तो कल लोग तन्ने भूल जावेंगे, गोल्ड जीत्ती को मिसाल बन जावेगी। और मिसाल दी जात्ती है बेटा भूली नहीं जात्ती। भला हो जूरी का जो दंगल में बचपन वाली गीता यानी जायरा वसीम को बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर के सम्मान से नवाजा। कोई बात नहीं मिस्टर परफेक्शनिस्ट... पिक्चर अभी बाकी है... क्या पता एक दिन ऑस्कर ही मिल जाए।