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सिकंदर को दुनिया जितना महान मानती है, उतना ही सम्मान भारत में राजा पोरस(पुरु) का भी हैं। पुरू का नाम यूनानी इतिहासकारों ने 'पोरस' लिखा है। इतिहास को निष्पशक्ष और सही तरिके से लिखने वाले प्लूटार्क ने लिखा है, "सिकंदर सम्राट पुरु की 20,000 की सेना के सामने तो ठहर नहीं पाया। आगे विश्व की महानतम राजधानी मगध के सम्राट धनानंद की 3,50,000 की सेना उसका स्वागत करने के लिए तैयार थी जिसमें 80,000 घुड़सवार, 80,000 युद्धक रथ एवं 70,000 विध्वंसक हाथी सेना थी।"
लेकिन सिकंदर को तो राजा पोरस ने ही रोक लिया था। आइए जानते हैं इस ऐतिहासिक महासंग्राम से जुड़ी कुछ खास बातें:
सिकन्दर(Alexander) यूनान के उत्तर में स्थित मकदूनिया(mecedoniya) के बादशाह फिलिप के बेटे थे। केवल बीस वर्ष की आयु में सिकन्दर बादशाह बन गए। प्राचीन काल से ईरान और यूनान के बीच शत्रुता चली आ रही थी। सिकन्दर ने विश्वविजेता बनने का प्रण लिया और बड़ी सेना के साथ अपनी विजय यात्रा प्रारम्भ कर दी।
उस समय यूरोप में यूनान, रोम को छोडकर शेष जगह सभ्यता न के बराबर थी और प्राचीन सभ्यताएं एशिया महाद्वीप, मिस्र, में ही स्थित थी। इसलिए सिकन्दर ने सेना लेकर पूर्व का रूख किया वह थीव्स, मिस्र, इराक, मध्य एशिया को जीतता हुआ ईरान पहुंचा जहां क्षर्याश का उतराधिकारी दारा शासन कर रहा था। सिकंदर ने दारा को हराकर उसके महल को आग लगा दी और इस प्रकार क्षर्याश द्वारा एथेंस को जलाए जाने का बदला लिया। इसके बाद वो आगे बढकर हिरात, काबुल, समरकंद को जीतता हुआ सिंध नदी की उत्तरी घाटी तक पहुंच गया।
जब सिकन्दर ने सिन्धु नदी को पार किया तो भारत में उत्तरी क्षेत्र में तीन राज्य थे-झेलम नदी के चारों ओर राजा अम्भि का शासन था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी। पोरस का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था। तीसरा राज्य अभिसार था जो कश्मीर क्षेत्र में था।
पुरु अथवा पौरस का परिचय
यूनान के इतिहास लेखक सिकन्दर से युद्ध करने वाले भारतीय राजा का नाम अपनी भाषा पोरस अथवा पुरु बताते हैं।ह उसका नाम नहीं बल्कि पुरुवंश का परिचायक है। कटोच इतिहास में इस वीर राजा का नाम परमानन्द कटोच बताया जाता है। पुरु वंशी राजा पोरस का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था।
राजा अम्भि का पोरस से पुराना बैर था इसलिए सिकन्दर के आगमन से अम्भि खुश हो गया और अपनी शत्रुता निकालने का उपयुक्त अवसर समझा। अभिसार के लोगों ने कुछ नहीं किया। इस तरह पौरस ने अकेले ही सिकन्दर की सेना का सामना किया।
"प्लूटार्च" के अनुसार सिकन्दर की बीस हजार पैदल सैनिक तथा पन्द्रह हजार अश्व सैनिक पोरस की युद्ध क्षेत्र में एकत्र की गई सेना से बहुत ही अधिक थी। सिकन्दर की सहायता फारसी सैनिकों ने भी की थी। कहा जाता है कि इस युद्ध के शुरु होते ही पोरस ने महाविनाश का आदेश दे दिया उसके बाद पोरस के सैनिकों ने तथा हाथियों ने जो विनाश मचाना शुरु किया कि सिकन्दर तथा उसके सैनिक तो बस देखते ही रह गए। इसी तरह का वर्णन "डियोडरस" ने भी किया है..विशाल हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त सहायक सिद्ध हुए..उन्होंने अपने पैरों तले बहुत सारे सैनिकों को चूर-चूर कर दीया।
इसके बाद सिकन्दर को पोरस ने उत्तर मार्ग से जाने की अनुमति नहीं दी। विवश होकर सिकन्दर को खूंखार जन-जाति के कबीले वाले रास्ते से जाना पड़ा। इस क्षेत्र में कठ क्षत्रिय जनजाति(संभवत आज के काठी क्षत्रिय), मालव, राष्ट्रिक(राठौड़), कम्बोज, दहियक(दहिया क्षत्रिय राजपूत), आदि ने भी सिकन्दर का डटकर सामना किया।
स्पष्ट है कि पोरस के साथ युद्ध में तो उसके सैनिकों का मनोबल टूट ही चुका था रही सही कसर इन कठ, मालव जैसी क्षत्रिय जातियों ने पूरी कर दी थी। अब इनलोगों के अंदर ये तो मनोबल नहीं ही बचा था कि किसी से युद्ध करे। सिकंदर ने लौटने का फैसला लिया।
सिकन्दर जाते हुए सेल्युक्स सहित कुछ यूनानी गवर्नर यहां नियुक्त कर गया, किन्तु जल्दी ही चाणक्य के मार्गदर्शन में भारतवर्ष में एक महान क्षत्रिय राजपूत सम्राट का उदय हुआ वो थे "चन्द्रगुप्त मौर्य" जिन्होंने इन यूनानियों को जल्द ही परास्त कर भगा दिया।
युनानी इतिहास की कहानी कुछ और ही है
उनके अनुसार सिकन्दर ने पोरस को बंदी बना लिया था..उसके बाद जब सिकन्दर ने उससे पूछा कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाय तो पोरस ने कहा कि उसके साथ वही किया जाय जो एक राजा के साथ किया जाता है अर्थात मृत्यु-दण्ड..सिकन्दर इस बात से इतना अधिक प्रभावित हो गया कि उसने वो कार्य कर दिया जो अपने जीवन भर में उसने कभी नहीं किए थे..उसने अपने जीवन के एक मात्र ध्येय, अपना सबसे बड़ा सपना विश्व-विजेता बनने का सपना तोड़ दिया और पोरस को पुरस्कार-स्वरुप अपने जीते हुए कुछ राज्य तथा धन-सम्पत्ति प्रदान किए..तथा वापस लौटने का निश्चय किया और लौटने के क्रम में ही उसकी मृत्यु हो गई..!