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हम सभी अपने जीवन की सार्थकता के लिए बस यही सपना देखते हैं कि एक अच्छी नौकरी हो। एक घर हो और एक गाड़ी हो क्योंकि ये सभी आज की मूलभूत जरुरत होने के साथ साथ हमारे सामाजिक स्तर के लिए भी जरुरी हैं, लेकिन आज की कहानी एक ऐसी महिला की है जो जर्मनी में अपनी अच्छी खासी नौकरी और सभी ऐश-ओ-आराम छोड़ कर भारत आ गयी।
जर्मनी के बर्लिन की रहने वाली Andrea Thumshirn ने 2009 में भारत आने के लिए अपनी नौकरी को छोड़ दिया। अपनी तय यात्रा के अनुसार वह सबसे पहले राजस्थान के गड़-हिम्मत गांव में गईं, जहां उनके बिजनेस पार्टनर का घर था। लेकिन गांव पहुंच कर जब उन्होंने वहां बिजली और पानी जैसी समस्या पर गौर किया तो उन्होंने गांव को बेहतर बनाने के लिए कई उपाए सोचे।
जहां एक एक रुपए जोड़ कर हम उसे खुद पर खर्च कर देना चाहते हैं, वहीं एंड्रिया ने अपनी बचत के सारे रुपए गांव में हॉकी अकादमी बनाने में लगा दिए। शुरुआत में उन्होंने 25 बच्चों के साथ इस अकादमी को शुरू किया। उसके बाद अपने बिजनेस पार्टनर की मदद से इसे NGO में बदल दिया।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उनकी इस नेक पहल के बाद बच्चों ने और भी तादाद में उनसे जुड़ना शुरू किया ही था कि उन्हें उनके बिजनेस पार्टनर के रुपयों की हेरा फेरी का पता चला, इसके बाद उनके पार्टनर ने ये कहते हुए उन्हें बदनाम करने की कोशिश की कि एंड्रिया बच्चों को ईसाई बनाने के लिए ये NGO चला रही हैं।
जिनके इरादे नेक हों और नीयत साफ़, उनके कदम किसी के रोके नहीं रोक सकते, एंड्रिया ने खुद को मजबूत किया और उसी गांव से 9 किलोमीटर दूर जटवाडा गांव में प्राथमिक स्कूल खोला और उनकी इसी लगन का प्रभाव रहा कि उनके पुराने विद्यार्थी इतना फासला तय कर के उनके स्कूल पढ़ने जाने लगे।
उनके संघर्ष की कहानी की एक कड़ी ये भी है कि उन्हें गांव वालों के विरोध का भी सामना करना पड़ा। वह अपनी लड़कियों को हॉकी के अनुसार कपडे पहनाने को तैयार नहीं थे। लेकिन एंड्रिया हर समस्या से जूझती रहीं और उन्होंने लोगों को सोच को बदल कर दिखा दिया। एंड्रिया का कहना है कि,"गांव वालों को दोष नहीं देना चाहिए, क्योंकि उन्होंने हमेशा लोगों को रुपयों या किसी स्वार्थ के बदले भला करते देखा है, जब वो ऐसे किसी व्यक्ति को देखते हैं जो बिना मतलब के भलाई करना चाहे तो जाहिर तौर पर उनके मन में सवाल आएंगे"।
एंड्रिया ने कृत्रिम घास उगाने की भी पूरी तैयारी कर ली थी जिससे बच्चों को धूल मिटटी में खेलने से बचाया जा सके। जिसके लिए उन्हें सरकारी आज्ञा के साथ साथ 30 लाख रुपए भी मिले। लेकिन राजस्थान हॉकी एसोसिएशन ने उनके इस सपने को पूरा नहीं होने दिया। एंड्रिया ने इसके बारे में बताते हुए कहा कि क्योंकि उनकी संस्था राजस्थान हॉकी से संलग्न नहीं है, वह अपनी टीम को राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर नहीं भेज सकतीं लेकिन बावजूद इसके उनके समर्पण के कारण उनकी टीम के 2 खिलाड़ी आज जर्मनी में चयनित हो चुके हैं। एंड्रिया को लगता है कि राज्य उनकी टीम को मौका न देकर अपने ही हुनर का नुकसान कर रहा है।
आज एंड्रिया के NGO में 80 से ज्यादा बच्चे हैं जिनमें 50 लड़के और 30 लड़कियां हैं। एंड्रिया का कहना है कि उन्हें अपने इस काम के बदले रुपए नहीं चाहिए, वो बच्चों की हंसती मुस्कुराती शक्लों के लिए ये कर रही हैं। उनका सपना है कि उनकी टीम के कम से कम दो खिलाडी भारत के लिए हॉकी खेलें।