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बेटियों को लेकर बाहर चमचमाती हुई फैशनेबल सोच और अंदर बजबजाती हुई मानसिकता

Updated Thu, 25 Jan 2018 05:43 PM IST
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Republic For Daughters
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विस्तार

इस साल हमने तय किया कि गणतंत्र दिवस को बेटियों के नाम समर्पित की जाए। उनके हक में लिए गये फैसले और उठाए गए सकारात्मक कदमों पर चर्चा किया जाए। 1950 के बाद से देश की तरक्की को महिलाओं के ऐनक से भी पढ़कर देखेंगे। 1950 के बाद से देश की तरक्की को महिलाओं के ऐनक से भी पढ़कर देखेंगे। लेकिन जब हमने इस ऐनक को अपनी आंखों पर चढ़ाया तो हमें एकाएक हमारा समाज, संस्कार और सरकारें दोगले चादरों से लिपटी दिखाई देने लगी। जो एक तरफ तो 'अच्छी' सुनाई देने वाली बातें करते हैं लेकिन अंदर उसी पुरानी बजबजाती हुई मानसिकता का पालन पोषण कर रहे हैं। ऐसा हम नहीं कह रहे, पिछले दिनों जो कुछ हुआ उसकी रिपोर्ट्स इसकी बानगी हैं। 

हाल ही में नेशनल हेल्थ सर्वे की एक रिपोर्ट आई। जिसका दावा था कि देश के 80 फीसदी लोग चाहते हैं कि उनके परिवार में कम से कम एक बेटी जरूर हो। सुनकर और पढ़कर अच्छा लगा लेकिन फिर अखबार का दूसरा पन्ना पलटा तो देखा कि हरियाणा में बलात्कार के लगातार बढ़ते मामले चिंता का विषय है। मेरा दिमाग दौड़ा और सवाल उठा कि ऐसा कैसा हो सकता है। जो लोग खुद के दिल में बेटी की तमन्ना पनपा रहे हैं वो कैसे किसी दूसरे की बेटी को टारगेट कर सकते हैं। जब जगह एक है, जनता एक है... ऐसी स्थिति में दो विरोधाभासी बातें कैसे। साफ है कि दोनों में से एक बात गलत है। चूंकि लगातार रेप की खबरें आ रही हैं, उनके साक्ष्य हैं, सबूत हैं तो जाहिर सी बात है कि कौन सा दावा गलत है। 

हमारे पड़ोस में एक तिवारी जी रहते हैं। उनकी दो बेटियां हैं और एक बेटा है। दोनों बेटियां सरकारी स्कूल में पढ़ती हैं और बेटा प्राइवेट स्कूल में पढ़ता है। बेटियां पढ़ने में मेधावी थीं लेकिन उसे शहर से बाहर नहीं भेजा। बेटा पढ़ने में औसत से कम था लेकिन उसके लिए लोन लेकर उसे महंगे कॉलेज में दाखिला दिलवाया। ऐसा नहीं है कि वो बेटियों को प्यार नहीं करते हैं। व्हाट्सएप पर सेल्फी विद डॉटर वाली डीपी लगा रखी है। फेसबुक पर लंबे लंबे पोस्ट लिखते हैं, बेटियों के नाम पर। लेकिन जब अंतिम फैसला लेना होता है तराजू में बेटे का वजन, बेटियों की अपेक्षा बढ़ जाता है। 

ऐसे तमाम उदाहरण हैं और तिवारी जी ऐसे अकेले नहीं है बल्कि ऐसे लोगों की संख्या बड़ी तादात में है। इतनी बड़ी तादात में कि यह पुराने भारत की अवधारणा को सालों साल तक जिंदा रख सकते हैं। इस मानसिकता से निकलना ही सही मायनों में हमारे गणतंत्र का सम्मान होगा। इस दोहरेपन के रवैये को त्यागकर ही हम सही मायने में बेटियों का सम्मान कर सकते हैं। बेटा और बेटी का फर्क हमारी और आपकी अपनी देन है। जब तक हम कम और ज्यादा की तुलना छोड़ बराबरी पर नहीं आएंगे, तब तक ये भेद चाहकर भी खत्म नहीं हो पाएगा। अब गेंद आपके पाले में है। सोचें और इस गणतंत्र फैसला लें कि बेटी को न सिर्फ उसके सारे हक देंगे बल्कि वो बराबरी का पायदान भी देंगे, जिसकी वो हकदार है। 

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