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क़रीब दो हफ़्ते पहले मेरी एक नई नवेली शादीशुदा सहेली ने मुझे बताया कि वह अपना पहला तीज का व्रत रखने की तैयारी कर रही थीं। तीज मुख्यतः उत्तर भारत में मनाया जाने वाला एक हिंदू पर्व है जिसे शादीशुदा ज़िंदगी में ख़ुशहाली की प्रार्थना करते हुए मनाया जाता है। इस पर्व को मनाने के लिए शादीशुदा हिंदू महिलाएँ दिनभर उपवास रखती हैं और रात को पहर दर पहर पूजा करती हैं। फ़ोन पर बात करते वक़्त मुझे अपनी सहेली की आवाज़ में बहुत उत्साह और ख़ुशी महसूस हुई।
उन्होंने तीज पर पहनने के लिए एक नई साड़ी ली थी और दोनों हाथों में मेंहदी भी लगवाई थी। उनकी ख़ुशी देखकर मैं भी उनके लिए ख़ुश थी। पर ठीक तीज की सुबह उनको पीरियड्स शुरू हो गए। इसके बाद उनके मायक़े और ससुराल दोनों तरफ़ की माओं ने उन्हें व्रत और पूजा करने से मना कर दिया। घर की दूसरी बुज़ुर्ग औरतों ने भी उन्हें पूजा के कमरे से दूर रहने की हिदायत दी और कहा कि वो ग़लती से भी पूजा से जुड़ा सामान न छुएँ। यह भी कहा गया कि वह घर की बाक़ी व्रती महिलाओं से भी दूर रहें।
इस घटना के बाद जब लगभग रोते उन्होंने मुझसे दोबारा बात की तो मुझे ऐसा लगा कि मेरे दिल में किसी ने कील ठोक दी हो।मैंने अपनी सहेली के उत्साह और तीज को लेकर उनकी तैयारियों के बारे में सोचा... मेहंदी लगे हाथों की व्हाट्सऐप पर आई तस्वीर को एक बार फिर देखा और अचानक मेरी आखें गीली हो गयीं। ग़ुस्से में मैंने उनसे कहा कि इससे अच्छा तो यह होता कि वो तीज के साथ-साथ ऐसे धर्म को भी त्याग देतीं जो उनके दिल में बसे प्यार और उनकी अच्छाई की बजाय उनके पीरियड्स से मंदिर में उनका प्रवेश तय करता है।
आज सुबह जब सर्वोच्च न्यायालय के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से रोक हटाने की ख़बर मेरे दफ़्तर की दीवारों पर टंगे बीसियों टी।वी। स्क्रीन्स पर एक साथ फ़्लैश हो रही थी तब मुझे भोपाल की अपनी इसी सहेली और तीज के इस क़िस्से की याद आयी।
केरल के सबरीमाला मंदिर में अब तक 10 से 50 वर्ष की आयु वाली महिलाओं का प्रवेश वर्जित था। हिंदुओं के एक प्रमुख तीर्थ स्थल के तौर पर पहचाने जाने वाले सबरीमाला मंदिर में सैकड़ों सालों से माहवारी की उम्र वाली महिलाओं का प्रवेश वर्जित रहा है। इस भेद-भाव के पीछे मंदिर प्रशासन का तर्क ये था कि मंदिर के अंदर बैठे ईश्वर अयप्पा जीवन भर ब्रह्मचारी रहे हैं, इसलिए माहवारी की उम्र में आने वाले महिलाएँ यहां आकर पूजा नहीं कर सकतीं।
2006 में 'इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन' ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करके मंदिर में जारी इस प्रावधान को चुनौती दी। 12 साल की सुनवाई और अदालती बहस के अनंत घंटों से गुज़रने के बाद (28 सितंबर 2018) शुक्रवार को आख़िरकार सबरीमाला मंदिर मामले में 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने अपना फ़ैसला सुनाया।
फ़ैसला सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस आर। एफ। नरीमन, जस्टिस ए। एम। खानविलकर और जस्टिस चंद्रचूड़ की संविधान पीठ ने मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक को संविधान की धारा 14 का उल्लंघन बताया। उन्होंने कहा कि 'किसी को, बिना किसी भेदभाव के मंदिर में पूजा करने की अनुमति मिलनी चाहिए।'
संविधान पीठ की पांचवी और अकेली महिला न्यायाधीश जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने बाक़ी 4 न्यायाधीशों से असहमती जताई और निर्णय 4-1 के बहुमत से पारित हुआ। निर्णय के बारे में पढ़ते हुए ज़ेहन में मेरे दूर के रिश्ते में आने वाली उस नाबालिग़ भतीजी का चेहरा भी घूम गया जिसको दो साल पहले पीरियड्स आना शुरू हुए थे। एक दिन उसने सहमी हुई आवाज़ में मुझे बताया था कि उसकी दादी ने पीरियड्स के दौरान उसे भगवान जी के कमरे में जाने से मना किया है।।। साथ ही किचेन में जाने और अचार के डब्बे छूने से भी मना किया है।
उसने मुझसे कहा, "उस दिन मम्मी ने मेरी पसंद की कड़ी बनाई थी। भूख के मारे मुझे याद नहीं रहा कि मेरे पीरियड्स चल रहे हैं। और मैं कढ़ाई में से कड़ी निकालने दौड़ती हुई किचेन में चली गयी। पीछे से दादी आईं और उन्होंने मुझे और मम्मी को बहुत डाँटा," यह कहते हुए उस बच्ची ने मुझसे पूछा की ऐसा क्यों है?
मेरे दूर के रिश्ते में आने वाली इस किशोरी की ही तरह आज भारत के सैकड़ों घरों में बड़ी हो रही हज़ारों लड़कियां हमसे जवाब मांग रही हैं।सवाल यह है कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से तो सुप्रीम कोर्ट ने रोक हटा ली लेकिन हम कब अपने दिमाग़ों पर पड़ी अंधविश्वास की यह अतार्किक धूल हटाएँगे?हम कब अपने घर के मंदिरों, अपने रसोईघरों और अपने दिलों के दरवाज़े पीरियड्स से गुज़र रही महिलाओं के लिए खोलेंगे?
पीरियड्स या माहवारी प्रजनन प्रक्रिया से जुड़ी महिलाओं में होने वाली एक सामान्य जैविक प्रक्रिया है। जो प्रक्रिया सृष्टि को रचने और मनुष्य के अस्तित्व का कारण हो, वह अपवित्र कैसे हो सकती है?और अगर स्त्री महीने के उन पांच दिनों में अपवित्र है, तो हमें पवित्रता के ऐसे मापदंडों को ही ख़त्म कर देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट सारी दुनिया की ख़िलाफ़त करके हमारे लिए खड़ा हो सकता है, पर सवाल यह है कि एक समाज की तरह हम कब ख़ुद अपनी आधी आबादी के लिए खड़े होंगे?