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स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा रही सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रसिद्ध कविता "झांसी की रानी" ने मर्दानी शब्द से हमारा व्यापक परिचय करवाया। उसकी प्रमुख पंक्ति थी "खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी" और साथ ही मन में इस सवाल को जन्म दिया कि रानी मर्दानी ही क्यों हुई? किसी स्त्री के लिए मर्दवादी विशेषण का प्रयोग क्यों किया गया? क्यों स्त्री के अस्तित्व को मर्द से स्वतंत्र नहीं रखा गया?
लीक से हटकर किसी दबंग प्रकार का काम करने पर व स्वयं के लिए निर्मित परंपरागत छवि यथा शांत,सौम्य, कोमल आदि से इतर कोई स्त्री अन्य वीर छवि गढ़ती है तो उसे मर्दानी क्यों कहा जाए? वास्तव में ये मर्दानी शब्द न सिर्फ़ मर्द के रूप में रूढ़ हुए सबल/बलशाली अर्थ का परिचायक है अपितु अप्रत्यक्ष रूप से स्त्री के रूप में भी रूढ़ हुए अबला/दुर्बल शब्द का भी द्योतक है। हम इन प्रश्नों पर यह कह सकते हैं कि कविता में मर्दानी शब्द का इस्तेमाल किया जाना उन परिस्थितियों की विशेष मांग रही होगी क्योंकि कविता सन 1857 के समय का वर्णन कर रही है जब युद्ध जैसे कार्यों में पुरुषों की ही भागीदारी देखी जाती थी।
ऐसे में किसी स्त्री द्वारा युद्ध का नेतृत्व किया जाना "मर्दों जैसा" कार्य था जिसके लिए मर्दानी शब्द का इस्तेमाल किया गया। अब बात करते हैं वर्ष 2014 में प्रदीप सरकार द्वारा निर्देशित फ़िल्म "मर्दानी" की जिसमे मुख्य भूमिका में रानी मुखर्जी ने पुलिस ऑफिसर शिवानी शिवाजी राव का किरदार निभाया। यह फ़िल्म चाइल्ड ट्रैफिकिंग पर बनी थी जिसमें देह व्यापार में धकेलने के लिए अपहरण की गयी किशोरियों को शिवानी शिवाजी राव ने अकेले ही बड़ी बहादुरी से माफिया के चंगुल से मुक्त कराया। उनके इस बहादुरी वाले काम के लिए उन्हें "मर्दानी" कहा गया और फ़िल्म का नाम भी मर्दानी हुआ। अब बात फिर वहीँ आती है कि किसी स्त्री द्वारा दबंग प्रकार या बहादुरी वाले कार्य के लिए मर्द शब्द से निर्मित विशेषण "मर्दानी" का इस्तेमाल किया जा रहा है। अर्थात् स्त्री के अस्तित्व को पुरुषों से स्वतंत्र नहीं रखा जा रहा।
महिला सशक्तिकरण की बात करते वर्तमान समय में यह बेहद तर्कसंगत नहीं लगता कि स्त्रियों को पुरुषों जैसे बनने को बताया/दिखाया जाए क्योंकि हम पुरुषवाद का कोई विकल्प नहीं खोज रहे हैं, न ही हमें पुरुषों की नकल करनी है। जब हम स्त्रियों को पुरुषों व पुरुषों को स्त्रियों जैसा बनने पर ज़ोर देते हैं तो हम उनकी नैसर्गिक विषमता पर चोट करते हैं।वास्तव में स्त्रियों को कोई आवश्यकता ही नहीं है पुरुषों जैसा बनने की क्योंकि महिला सशक्तिकरण का मुद्दा स्त्रियों द्वारा उनके अस्तित्व को स्वतंत्र विस्तार देने व अपने व्यक्तित्व का स्वतंत्र विकास करने की बात उठाता है, न कि बात-बात पर पुरुषों से तुलना व पुरुषों की नकल की बात करता है। महिला सशक्तिकरण की बात पूर्णतः स्वतंत्र अवधारणा होनी चाहिए।
ज़रूरत है हमें उस मानसिकता से बाहर निकलने की जहां बहादूरी सिर्फ़ पुरुषों के हिस्से ही आती है और महिलाओं के हिस्से में अपार सौम्यता है। दरकार है हमें एक ऐसे समाज की जहां महिलाएं सिर्फ़ ज़िम्मेदारी ही नहीं हैं, वे स्वयं ज़िम्मेदार भी हैं। हमें गढ़ने होंगे नए शब्द और उपजानी होगी नई शैली जहां शब्दों और विधाओं पर सभी का अधिकार होगा।