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घूघंट की आंड़ से दिलवर का दिदार अधूरा रहता है..
जब तक न पड़े आशिक की नज़र श्रृंगार अधूरा रहता है...
घूंघट करना, पल्लू करना वाकई एक औरत की खूबसूरती को और निखार देता है। एक औरत अगर अपने बड़ों से घूंघट करती है मतलब लाज़ में करती है, लेहाज़ करती है। आजकल जमाना डिजिटेलाईज्ड हो रहा है, कहां कोई औरत घूंघट करती है। कुछ-एक गांव रह गए हैं जहां घूंघट वाली प्रथा आज भी कायम है। जब तक एक लड़की अपने घर रहती है तब तक आजाद रहती है जैसे ही बहू बनती, उसे घूंघट की जाल जकड़ लेती है।
घर के काम करते वक्त अगर पल्लू सर से हट जाए तो ताने सुनती है 'यही सीख के आयी हो अपने गांव से' और न जाने क्या-क्या। गांव में तो यहां तक बात आती है कि औरत अगर पल्लू नहीं करती तो उसमें कोई संस्कार नहीं है। अब पता नहीं कौन सा संस्कार पल्लू में छिपा होता है।
घूंघट करना अच्छी बात है अगर एक औरत घूंघट में अपने आप को महफूज़ समझती है, आरामदायक समझती हैं। हिजाब पहनना मुस्लिम का धर्म हो सकता है, लेकिन ऐसा किसी वेद में नहीं लिखा है कि घूंघट करना हिंदू धर्म की सौगात है। अगर घूंघट करने को इज़्जत देने से जोड़ा जाए तो यह मात्र एक बेवकूफी है। आज भी कई गांवो में औरते घर के काम से लड़ती रहेंगी और घूंघट संभालती रहेंगी। घूंघट की प्रथा लगभग खत्म हो चली है लेकिन लोग आज भी लोगों को लगता है कि घूंघट करना मतलब लेहाज़ करना।
इज्ज़त देनी है तो दिल से दो, लेहाज करना है तो दिल से करो। आपकी आंखे ही बयां कर देंगी कि आप सामने वाले को इज़़्जत देते हो कि नहीं।
लाज़ का घूंघट तो इंसान के अंदर होता है न कि चेहरे पर। लाज़ करना, अच्छी बात है लेकिन घूंघट को लाज़ से जोड़ने का कोई मतलब नहीं निकलता है। अपने अंदर के लाज़ को जाहिर करने के लिए घूंघट का सहारा क्यों लेना। अभी औरत के जीवन में कम संघर्ष और आफत है क्या कि एक घूंघट की आफत भी पाल लें। हम कभी भी ये नहीं कहेंगे कि औरत को घूंघट नहीं करना चाहिए लेकिन अगर औरत बिना घूंघट के खुध को आजाद महसूस करती है तो इसे घूंघट करने का कोई दबाव नबीं देना चाहिए।
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