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सपनों की मंजिल का मिलना इतना आसान नहीं होता, उस रास्ते में कई कांटे होते हैं। कई बार मजबूरियां पैर जकड़ने की कोशिश करती हैं, लेकिन जीत सिर्फ उन्हीं की होती है जो उन्हीं मजबूरियों को अपनी हिम्मत बना कर आगे बढ़ते जाते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि,
'जो खो गया, उसके लिए रोया नहीं करते
जो पा लिया, उसे खोया नहीं करते
उनके हीं सितारे चमकते हैं, जो मजबूरियों का रोना रोया नहीं करते'
इस बात को पुख्ता किया है भारतीय रेसलर वीरेन्द्र सिंह ने, जिन्होंने देश को 7 अंतर्राष्ट्रीय मेडल जीतकर दिए हैं। उन्होंने 3 गोल्ड और 4 कांस्य पदक जीते हैं। वीरेन्द्र सिंह ना ही बोल सकते हैं और न सुन सकते हैं, लेकिन पटकनी जोरदार दे सकते हैं।
वीरेंद्र सिंह हरियाणा के झज्जर में पैदा हुए हैं। उन्हें रेसलिंग का शौक अपने पिता और अंकल से हुआ जो खुद भी रेसलर हैं। उनके बहरेपन के कारण अक्सर गांव में उनका मजाक बनाया जाता था, जिसके बाद उनके अंकल उन्हें दिल्ली के सी.आई.एस.एफ.अखाड़ा में उनके पिता के पास ले गए। यहीं से उन्हें रेसलिंग का शौक लगा और 9 साल की उम्र से पहलवानी सीखकर उसमें महारथ हासिल कर ली।
वीरेंद्र को उनके पिता और अंकल के अलावा द्रोणाचार्य पुरूस्कार से सम्मानित महा सिंह राव और रामफल सिंह ने ट्रेन किया है। पहली बार 2002 में उन्होंने वर्ल्ड कैडेट रेसलिंग चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीता, जिसका मतलब था वर्ल्ड इवेंट में प्रवेश मिलना लेकिन रेसलिंग फेडरेशन ऑफ़ इंडिया ने उन्हें उनके बहरेपन के कारण इससे बाहर कर दिया। इसके बाद उन्हें Deaflympics के बारे में पता चला, जिसमें उन्होंने गोल्ड मेडल जीता। इसके बाद उनकी जीत का सिलसिला शुरू हो गया और उन्होंने एक के बाद कई मेडल जीते।
वीरेंद्र को अर्जुन अवार्ड से नवाजा जा चुका है। उन पर 'गूंगा पहलवान' नाम से डॉक्यूमेंट्री भी बन चुकी है, 45 मिनट की इस फिल्म को विश्व स्तरीय फिल्म महोत्सव में दिखाया जा चुका है और 2015 में इसे नेशनल फिल्म अवार्ड भी मिल चुका है।
बावजूद इसके deaflympics पर कभी कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। वीरेन्द्र सिंह के पास खुद का घर भी नहीं है। वह इस समय स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया के जूनियर स्पोर्ट्स कोच हैं।