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देश की सुरक्षा के लिए भारतीय सेना के जवान सियाचिन ग्लेशियर जैसी खतरनाक जगहों पर मुश्तैदी से तैनात रहते हैं, जहां यह तैनात रहते हैं वहां की हवा आदमखोर कहलाती है। पारा माइनस 50 डिग्री से कम रहता है और यह इस तापमान से जूझने वाले सुपरमैन कहलाते हैं। आए दिन यहां के खराब मौसम की वजह से जवान शहीद होते रहते हैं, लेकिन हाल ही मे एक घटना ऐसी घटी जिसे किसी चमत्कार से कम नहीं मान जा रहा है।
3 फरवरी को सियाचिन आर्मी कैम्प के पास सुबह करीब साढ़े आठ बजे एवलांच(हिमस्खलन/बर्फिला तूफान) आया। अपने बेस कैम्प से पैट्रोलिंग के लिए निकले एक जेसीओ समेत 10 जवानों का ग्रुप बर्फ के नीचे दब गया।
दरअसल, ग्लेशियर से 800 x 400 फीट का एक हिस्सा दरक जाने से एवलांच आया था।
सियाचिन में एवलांच के 6 दिन बाद जिंदा बचे (जो किसी चमत्कार से कम नहीं) लांस नायक हनुमनथप्पा अभी भी कोमा में हैं। बता दें कि एवलांच के बाद 150 जवानों ने 19600 फीट की ऊंचाई पर मौजूद सोनम पोस्ट में सर्च ऑपरेशन चलाया था, जिसमें हनुमनथप्पा जिंदा मिले तथा बाकी के जवानों के शव।
एक चमत्कार था जवान का जिंदा बचना
ऐसा माना जाता है की एवलांच में फंसने पर 92 पर्सेंट लोग तभी जिंदा बच पाते हैं, वो भी जब, तब उन्हें 15 मिनट के अंदर बाहर निकाल लिया जाए। 35 मिनट के बाद तो 27 पर्सेंट ही जिंदा रह पाते हैं। बर्फ में दबने के 10 मिनट बाद ब्रेन डैमेज होना शुरू हो जाता है। लांस नायक हनुमनथप्पा तो 125 घंटे बर्फ में दबे रहे, ये किसी चमत्कार से कम नहीं।
शायद इन वजहों से बचे लांस नायक हनुमनथप्पा
- ऐसा होता है की कई बार बर्फीली चट्टानों के बीच लेयर्स बन जाती हैं, जिससे एयर बबल या एयर पॉकेट बन जाते हैं। हनुमनथप्पा के केस में भी यही हुआ होगा।
- हनुमनथप्पा की मजबूत विल पावर ने भी उन्हें जिंदा रहने में मदद की। जबकि ऐसे मामलों में सर्वाइवल का चांस 50 पर्सेंट ही होता है।
- मेडिकल साइंस में जमा देने वाले टेम्परेचर में ही ऑर्गन ट्रांसफर किए जाते हैं या प्रिजर्व किए जाते हैं। बर्फ ही लांस नायक को जिंदा रखने में मददगार रही होगी।
- या फिर हो सकता है ऐसा हुआ हो की एवलांच के तुरंत बाद हनुमनथप्पा ने खुद को आर्कटिक टेंट के अंदर ढक लिया होगा। यह फाइबर से बना झोपड़ीनुमा टेंट होता है, जो आपको बर्फ में गर्म और बचाए रखने में करता है।
- योग की ताकत की वजह से। आर्मी के सीनियर अफसरों के मुताबिक, हनुमनथप्पा हमेशा योग करते थे। शायद इस कारण से भी वे लंबे समय तक बर्फ के अंदर सांस लेते रहे।
(credit:Dainik Bhashkar)
जानें सियाचिन ग्लेशियर के बारे में
सियाचिन ग्लेशियर या सियाचिन हिमनद हिमालय पूर्वी कराकोरम रेंज में भारत-पाक नियंत्रण रेखा के पास उत्तर पर स्थित है। सामरिक रुप से यह भारत और पाकिस्तान के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। यह विश्व का सबसे ऊंचा युद्ध क्षेत्र है। इस पर सेनाएँ तैनात रखना दोनों ही देशों के लिए महंगा सौदा साबित होता है। सियाचिन में भारत के 10 हजार सैनिक तैनात हैं और इनके रखरखाव पर प्रतिदिन 5 करोड़ रुपये का खर्च आता है।
सियाचिन क्यों है भारत के लिए अहम
हिमालयन रेंज में मौजूद सियाचिन ग्लेशियर वर्ल्ड का सबसे ऊंचा बैटल फील्ड है।1984 से लेकर अबतक करीब 900 जवान शहीद हो चुके हैं। इनमें से ज्यादातर की शहादत एवलांच और खराब मौसम के कारण ही हुई है। सियाचिन सबसे ऊंचाई पर स्थित है। यहां पाकिस्तान और चीन दोनों की सीमा भारत के साथ मिलती है। दोनों देश से हमें आये दिन खतरा बना रहता है। पाक और चीन की सेना लगातार भारत की सीमा पर घुसपैठ की कोशिश में लगी रहती है। थोड़ी सी चुक से भारत संकट में पड़ सकता है। इसलिए यहां सैनिक चौकन्ने रहते।
पारा शून्य से 50 डिग्री नीचे तक
पारा -50 के करीब पहुंच जाता है। इतनी ठंढ़ के बीच भारत के जवान वहां पूरी मुस्तैद के साथ डटे रहते हैं। सियाचिन ग्लेशियर पर स्थित भारतीय सीमा की रक्षा के लिए 3 हजार सैनिक हमेशा तैनात रहते हैं। पाकिस्तान सियाचिन पर हमेशा से अपना दावा करते आया है।
आर्मी की तैनाती पर हर रोज 7 करोड़ रुपये का खर्च
हर रोज आर्मी की तैनाती पर 7 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। यानी हर सेकंड 18 हजार रुपए। इतनी रकम में एक साल में 4000 सेकंडरी स्कूल बनाए जा सकते हैं। यदि एक रोटी 2 रुपए की है तो यह सियाचिन तक पहुंचते-पहुंचते 200 रुपए की हो जाती है।
जवानों का जीना भी है मुश्किल
जवानों की पल्टन की तैनाती तीन-तीन माह के लिए की जाती है। इन तीन माह में यह नहाने से एकदम दूर रहते हैं। क्योंकि नहाने के लिए यदि बहादुरी दिखाने की कोशिश की तो शरीर का कोई ना कोई अंग गलकर वहीं गिर जाएगा। खाना भरपूर रहता है पर यह जानते हैं कि खाने के बाद उन्हें कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। बर्फीले हवाएं इन्हें निगलने के लिए हर पल इनके सिर पर मंडराती रहती हैं।
सिर पर मंडराती मौत
बर्फ के नीचे सैनिक दफन होते हैं और उनकी बर्फ में ही कब्र बन जाती है। इसके बाद भी यहां सैनिक मुस्तैदी से हर पल तैनात रहते हैं। मौसम से लड़ते हैं और पाकिस्तान से होनी वाली घुसपैठ पर भी नजर रखते हैं। बहुत कम पल्टन ऐसी होती हैं जिसमें उतने सैनिक ही वापस लौट आए जितने सियाचिन पर मोर्चा संभालने पहुंचते हैं।
मौत की खबर भी कई दिनो बाद
यहां तैनात सैनिकों के सिर पर कोई ताज नहीं होता। इनके जान गंवाने की खबर भी सैनिकों के परिजनों तक चिट्ठी से पहुंचती है। इसका खाका हर भाषा में तैयार रहता है क्योंकि सैनिक के परिजनों की भाषा अलग-अलग होती है। बस सैनिक का नाम और नंबर खाली रहता है, जिसे सैनिक के जान गंवाने के बाद रिक्त स्थान में लिख दिया जाता है।
ऐसे करते है गश्त
यह पांच-पांच की संख्या में बर्फ पर कमर में रस्सी बांधकर गश्त करते हैं। ताकि कोई एक खाई में जाए तो बाकी उसे बचा सकें पर कई बार यह पांच के पांचों ही बर्फ में समा जाते हैं, और इनके बर्फ में समाने की जानकारी जब तक मिलती है, तब तक इनके ऊपर कई फुट मोटी बर्फ जम चुकी होती है।
फिर भी यह सब सहते हैं।
देश के लिए जीते और देश के लिए मरते हैं।
सलाम और सैल्यूट इन जवानों को।
इनकी जांबाजी को। इनके जज्बे को।