'इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ खुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं'
ग़ालिब। जिसकी ग़ज़लें सजती थी शराब के बाद। जिसकी शायरियों के लोग दीवाने नहीं होते थे। दीवानापन जिसकी शायरियों के लिए तरसता था। गर महबूबा की हाथ से चप्पल नहीं खाई तो क्या कोई शायरी कहेगा। जिसने रंज़-ओ-ग़म न देखा हो। वो शायर क्या बनेगा। ये थे ग़ालिब।
'ये कहां कि दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता'
27 दिसंबर 2016। साल का आखिरी हफ़्ता। क्रिसमस के ठीक बाद दूसरा दिन। 25 को सेंटा आया था। और आज ग़ालिब। पैदाईश आगरा की थी। 1797 का साल। पूर्वज तुर्क से आए हुए थे। मुग़लों का दौर अब अंजाम की ओर बढ़ रहा था। 13 साल की उम्र में ब्याह कर दिया गया। उमराव बेगम से। दूसरी बार खुद को कैद बताया था इस दिलफ़रेब आदमी ने। पूछा पहला क्या था जनाब? जवाब था पहली तो ये ज़िंदगी। 7 बच्चे हुए थे। एक को भी ज़िंदगी ज़िंदगी की कैद नसीब नहीं हुई। मंजूर हुई मौत-ए-आज़ादी।
'मैं भी मुंह में ज़बान रखता हूं
काश पूछो की मुद्दा क्या है'
कैद-ए-ज़िंदगी का 72 वां साल था। ज़मीं की आंखों में दरार था। बिन बरसात ही ज़मीं भीग गई थी। क्योंकि ग़ालिब अब आज़ाद था। इस ज़िंदगी की कैद से। और ज़मीं को ये आज़ादी मंजूर नहीं थी। वो चला गया। सब कुछ छोड़ कर। पीछे। दिल्ली की ज़मीं में सुपुर्द-ए-ख़ाक कर हुआ। आज भी जाओ तो मानो मज़ार से कोई कह रहा हो।