मुंबई में 14 साल और करीब 40 फिल्मों, कई टेलीविजन कार्यक्रमों में काम करने वाले बॉलीवुड के इस दिग्गज अभिनेता को हाल के वर्षों में जो पहचान मिली है वह देर आए, दुरुस्त आए जैसी है। लंबे समय तक छोटी-छोटी भूमिकाएं करने वाला ये अभिनेता अब भी गांव की मिट्टी से जुड़ा है।
मंझे हुए कलाकार पंकज त्रिपाठी और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता कहते हैं कि, मुझे लगता है कि जो जब होता है तभी अच्छा होता है। गुलाब के पौधे में फूल लगने में छह-आठ महीने लग जाते हैं। अगर यह सफलता आसानी से मिल जाती तो शायद इसका महत्व समझ में नहीं आता लेकिन अब इसे संभाल कर रख सकता हूं। वहां जाने के बाद सफर शून्य से ही शुरू होता है, चाहे आप एनएसडी से आए हो, बीएनए से या कहीं और से।
पंकज त्रिपाठी गांव से तो निकल गए लेकिन गांव उनके भीतर से नहीं निकल सका और न निकलेगा। उनका स्पष्ट मानना है कि जो पेड़ जड़ों से कट जाता है, वह फिर जीवित नहीं रहता है। वो 14 साल से मुंबई में हैं, साल में दो-तीन दिन ही सही लेकिन गांव जरुर जाते हैं। उनका रहन सहन आज भी एक देसी व्यक्ति जैसा ही है। पंकज वैसे तो फिल्मों से करोड़ो रूपये कमाते है, लेकिन के घर में आज भी लकड़ी के चूल्हे पर ही खाना बनाया जाता है।
पंकज मुख्य रूप से एक किसान के परिवार से संबंध रखते है। उनके पिता का नाम बनारस त्रिपाठी और माता का नाम हेमंत देवी है। पंकज ने गैंग ऑफ वासेपुर में इतना बखूबी काम किया था। आज वो किसी पहचान के मोहताज नहीं है। जब पंकज ने बात पिता को एक्टिंग के बारे में बताया तो उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि कमा-खा लोगे ना? पिता के इतना कहने के बाद वे दिल्ली एनएसडी पहुंच गए।
गोपालगंज जिला, बिहार के बेलसंड गांव के एक किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले पंकज के गांव में आज भी पक्की सड़क नहीं है। उनके गांव के घर में उनके माता पिता और रिश्तेदार ही रहते है। पंकज ने फुकरे, मसान, ओमकारा, गुंडे, मंजिल और गैंग ऑफ वासेपुर जैसी कई सुपरहिट फिल्मो में काम किया है।