दुनिया भर में ऐसे कई ट्रेडिशन भरे पड़े हैं जो कि सुनने पर बेहद अजीब मालूम पड़ते हैं। पर हर संस्कृति की अपनी विशेषताएं होती हैं जो कि हमेशा ही लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं। कई बार हम ऐसे किस्सों को सुनकर हैरान हो जाते हैं और सोचते हैं कि यार ऐसा कैसे हो सकता है? ये सब कितना अजीब है। पर जो बातें हमें कई बार अजीब लगती हैं वो उस ख़ास समुदाय की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से सम्बंधित होती हैं। फिर भी उनकी पद्धतियां हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती हैं। आज हम इस धरती पर मौजूद ऐसी ही एक ख़ास जनजाति के बारे में बात करने जा रहे हैं जिसकी एक अनूठी परंपरा के बारे में सुनकर आप हैरान रह जाएंगे और हो सकता है आपको थोड़ा दुःख भी हो।
म्यांमार और थाईलैंड के बॉर्डर पर कयान नामक एक जनजाति निवास करती है। इस जनजाति की महिलाएं उम्र भर गर्दन में पीतल के छल्ले पहन कर रखती हैं। इन छल्लों का वज़न अच्छा ख़ासा होता है। ये चूड़ियों की तरह नहीं होते हैं बल्कि ये लूप में होते हैं। इन्हें घुमा-घुमा के गर्दन में पहनाया जाता है। ये एक तिब्बती-बर्मी अल्पसंख्यक समुदाय है। इस वजह से इनके निवास को लेकर एक समय इतनी उथल-पुथल रही कि इनको अपना जन्म स्थान छोड़कर थाईलैंड के बॉर्डर पर जाना पड़ा।
आपको इन महिलाओं की तस्वीर देखकर लगेगा कि इन छल्लों को पहनने से इनकी गर्दनें लम्बी हो गयीं हैं। पर असल में ऐसा नहीं होता है। इन भारी छल्लों के भार से उनके कंधे झुकने लगते हैं ऐसे में देखने में उनकी गर्दनें लम्बी मालूम पड़ती हैं। इन महिलाओं के एक्स-रे को देखने पर पता चलता है कि इनकी पसलियों पर उम्र भर इतना अधिक दबाव पड़ता है कि वो डिफार्म हो जाती हैं और उनकी पसलियों का पूरा आकार ही बदल जाता है। इससे इनके स्वास्थ्य पर भी बहुत बुरा असर पड़ता है। एक बुज़ुर्ग कयान औरत कहती है कि अगर उसने अब अपने छल्लों को उतारा तो उसकी गर्दन टूटने का ख़तरा हो सकता है। इन महिलाओं को दस साल में एक बार अपनी गर्दन को बिना छल्लों के देखने का मौका मिलता है जब इन छल्लों की संख्या बढ़ाई जाती है।
इन छल्लों को पहनने का एक कारण शेरों से बचाव, सुंदरता में बढ़ोतरी या दूसरे कबीलों के प्रहारों से बचने के लिए शुरू किया गया होगा। एक बच्ची के पांच साल के होते ही उसे ये छल्ले पहना दिए जाते हैं। और समय के साथ-साथ इन छल्लों को बढ़ाया जाता है। इस वजह से इन महिलाओं को "जिराफ़ वुमन" भी कहा जाता है।
इन सारी तकलीफों के बावजूद ये महिलाएं इन छल्लों को पहनना इसलिए पसंद करती हैं क्योंकि ये इनके समुदाय की पहचान हैं। अल्पसंख्यक होने की वजह से दुनिया में अपना वजूद कायम रखने की जद्दोजहद करते हुए ये महिलाएं इस परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं। वहीँ देखा गया है कि थाईलैंड के रिफ्यूजी कैंप में कुछ महिलाओं ने विरोध स्वरुप इन छल्लों को त्याग दिया। पर यही परंपरा अब इनके जीवनयापन का एक साधन बन गयी है। इस समुदाय के निवास को अब टूरिस्ट गांव में बदल दिया गया है जहां लोग दूर-दूर से आते हैं और इन लोगों के जीवन जीने के अपने अनोखे तरीके को बेहद करीब से देखते हैं। इससे इन लोगों को कुछ पैसे भी मिल जाते हैं।
समय के साथ ये जनजाति भी बदल रही है और यहां की ये लड़कियां अब स्कूल पढ़ने जाने लगी हैं।