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'हरबंस सिंह सिधु'। रहने वाले तो पंजाब के हैं लेकिन रहते गुज़रात में हैं। उन्होंने अपने बचपन का एक किस्सा लिख भेजा है हमारे पास। और हम ले आए आपके लिए। पढ़िए। देश के राजनैतिक इतिहास का जब-जब जिक्र होगा। इन दो सालों का जिक्र जरूर आएगा। एक था 1984 और दूसरा 2002। कोई कहता है, 2002 में कहां थे? तो तुरंत जवाब मिल जाता है, और 84 को भूल गए क्या? राजनीति है होती रहती है, होती रहेगी! अभी आप ये पढ़िए. आगे आप और संधू जी!
1984 का 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' और उसके बाद हुई श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या से भड़के दंगे ने हजारों सिखों की जान ली। इज्जत लुटी और रोजगार को तहस-नहस किया गया। इसी नफरत की आग ने सदियों पुराने इंसानीयत के रिश्ते को भी दागदार कर दिया और जब इस नफरत ने जुबां से बयां होना शुरु किया, तब और कई जज्बात घायल हो गए। बस उन्हीं जज्बातों को मैं आज आप से बांटना चाहता हूं।
मेरे पापा और ताऊ जी, उन दिनों गुजरात रोडवेज़ में ड्राइवर की नौकरी किया करते थे। और श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद, कई दिनों तक घर पर ही रहे थे। सारा सिख समाज भयभीत था और डर लगा रहता था। लेकिन गुजरात प्रशासन की सख्ती से और गुजराती अमन पसंद समाज ने हम में से किसी को भी पूरे गुजरात में खरोंच तक नही आने दी। लेकिन शब्दों के बाण लगातार चल रहे थे। घर में एक 6 साल के बच्चे को कहा गया था “अगर कोई कुछ कहे तो सिर झुका के चले जाना। किसी का भी पलट के जवाब मत देना। कुछ ही दिनों में लोग सब भूल जायेगे।”
और इसी चुप्पी ने ये वाक्य सुना “गोल्डन टेम्पल तो आंतकवादियों का गढ़ बन गया हैं”, जिसे मेरी कक्षा 6 की हिंदी की टीचर ने कहा था। फिर 1994 में मैं 12वीं क्लास में था। तब के कैमिस्ट्री के टीचर ने भरी क्लास मैं कहा था “क्या पगड़ा पहन के ट्यूशन आ जाते हो।”। इसी दौरान मुझे कई बार दोस्तों द्वारा “पिंडा” कहकर बुलाया जाता था। मैं बस चुप था, लड़ाई करूं तो किससे? सामने वाला चेहरा आखिर है तो मेरी जान पहचान का ही। और कहीं न कहीं इन लफ्ज़ों के बाणों को मेरे ज़ेहन ने भुला भी दिया था।
लेकिन एक दुखांत मुझे अक्सर याद आता है। जहाँ चेहरा नही था बस बंदूक की आवाज़ थी। मुझे आज तक पता नही चला कि बंदूक चलाने वाले हाथ किसके थे? दादा जी की मोत के बाद, पंजाब के गांव के घर पर ताला ही होता था लेकिन दरवाजे पर एक जान पहचान के दर्जी को बैठा रखा था ताकि घर का दरवाजा खुला रहे। और हम सिर्फ गर्मियों की छुट्टी पे जाया करते थे। 1990 की गर्मियों मैं 12 साल का था। मेरा भाई 8 साल का। दादी, पापा, माँ और हम पंजाब गए हुये थे।
उसी दौरान एक दिन पापा हमारी जमीन जो कि किराये पर बीजने के लिये दी हुई थी उसके पैसे लेकर आये थे और माँ ने संदूक में संभाल दिये थे। गर्मी के दिन और बिजली का ना होना, मजबूर करता था घर के आंगन में सोने को और गांव में आंगन अमूमन बहुत बड़े होते हैं। ताकि ट्रेक्टर ट्राली अंदर रख सकें। बस हम सोने की तैयारी ही कर रहे थे कि घर के पीछे से बन्दूक की गोली चलने की आवाज सुनाई दी।
बस, इतने में बिजली भी चली गयी। हम सब भाग कर घर के सबसे बड़े कमरे में इकट्ठे हो गये। आँगन बड़ा होने की वजह से और बिजली ना होने की वजह से, हमें खिड़की से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। इतने में गाव के और दूसरे कोनों से तीन अलग अलग बंदूक की गोलियों की आवाजें आयी। और एक ट्रक के जाने की आवाज़ सुनाई दी जो कि हॉर्न बजाते हुये जा रहा था। मैने उस दिन जाना की डर क्या होता हैं।
कमरे की खिड़की से पानी की शराही बांध रखी थी लेकिन किसी की हिम्मत नही हो रही थी पानी पीने के लिये उसे छूने और खोलने की। छोटा भाई, प्यास से तड़प रहा था और मेरी माँ उसे बड़ी दबी ज़ुबान से चुप करवा रही थी लेकिन माँ की ममता ज्यादा समय तक खुद को रोक ना सकी और हिम्मत कर शराही से एक ग्लास पानी निकाला और आधा मेरे भाई को दिया और आधा पानी मेरी दादी को दिया। घर का आगन रात के साथ और अंधेरे में डूबता जा रहा था। हवा से हिल रहे झाड़ के पते भी किसी परछाई का भेद खड़ा करते थे।
हम सारे अपनी ज़ुबान को दांतों तले दबाये बैठे थे कि दर्द की चीस भी ना निकले। वो रात इतनी लम्बी हो रही थी कि सूरज की पहली किरण को तरस गये थे। और जैसे ही सूरज की रोशनी अंधेरे को चीरती हुई आँगन में उतरी, हमारी सांस एक बार फिर शरीर में बहने लगी। दरवाजा खोल कर बाहर आये और आस पास देखा और बस मैं सो गया।
दूसरे दिन, किसी की हिम्मत नही हो रही थी पूछने की कि कौन था गोली चलाने वाला? क्या उसने पगड़ी पहनी थी या नहीं? कैसा दिखता था? कुछ दिनों बाद अफवाह फैलने लगी की लूटरे थे लेकिन किसी का घर नही लुटा था? उन दिनों किसी की हिम्मत नही होती थी पुलिस के पास जाने की जिसे हर कोई आतंकवादी लगता था। तो फिर वो थे कौन?
ये राज बस राज ही रह गया लेकिन ये भी सच्चाई है कि अगर उस दिन हमारे पूरे परिवार का कत्ल भी हो गया होता तो पता नही चलता कि क़ातिल कौन था। दो बच्चों के लिये, जिनकी उम्र 8 और 12 साल थी उनके लिये ये बंदूक वाला अंतकवाद था। पंजाब का। और वो स्कूल में कहे गए बोल, वो ज़बान वाला अंतकवाद था। घायल दोनों ने किया था, कहीं जिस्मानी तो कहीं जज्बाती। और शिकार मैं ही था। जय हिंद।
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